योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
तीसरा अध्याय
श्रीकृष्णचन्द्र का जन्म
दुष्ट कंस! पाप ने तेरी आँखों पर पट्टी बाँध दी। सारी आर्य-मर्यादा को तूने मिट्टी में मिला दिया। इस अज्ञानी बालिका के वध से तूने अपने को महापाप का भागी बना लिया और यह न विचारा कि मृत्यु से कोई बच नहीं सकता। जिस राज्य के लिए तू ऐसे पाप कर रहा है वह क्षणिक है, पर ऐसे घोर पाप से तेरी आत्मा घोर अधोगति को प्राप्त होगी। पाप से बढ़कर अंधा करने वाली दूसरी शक्ति जगत में नहीं है। एक पाप को छिपाने के लिए मनुष्य को अनेक पाप करने पड़ते हैं। पाप बड़ा बली है। जो लोग पाप पर विजयी नहीं हो सकते, उनको सदा खटका बना रहता है। रस्सियाँ साँप बनकर उनको डसने दौड़ती हैं। सारा संसार उनको शत्रु दीख पड़ता है। जितना कोई सीधा तथा निष्कपट होता है उतना ही वह[2] उससे भय खाता है। अज्ञानी बालकों को भी यह अपना शत्रु समझकर उनके वह स्वयं उसी के बोझ से दबकर मर मिटता है। पुराण का लेखक आगे लिखता है कि जब लड़की को उठाकर भूमि पर फेंक दिया तो वह तत्काल देवी का रूप धारण कर वायु में अन्तर्धान हो गई और कंस खड़ा ही रह गया,[3] पर उसे लगा कि या तो मेरे साथ धोखा किया गया या मैंने इस बालिका को वृथा मारा, अगमवाणी तो बालक के विषय में थी। चाहे कुछ हो पर उसने यादव वंश के सारे बालकों के वध की आज्ञा दे दी।[4] ढूँढ़-ढूँढ़कर राजकुमार मारे गये। बहुतेरे यादव-वृन्द देश छोड़कर चल दिए और बहुत दिनों तक यह मार-पीट जारी रही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो उसके साथ शैय्या पर लेटी हुई थी।
- ↑ पापी
- ↑ हजरत ईसा के जन्म के विषय में भी ऐसी ही कथा प्रसिद्ध है कि हिरोदेशो (जो उस समय वहाँ का अनुशासक था) ने इसी तरह तथा इसी भय से अनेक बालक मरवा डाले थे।
- ↑ शाहनामा में ‘फरेदू’ के जन्म के विषय में भी ऐसी ही कथा लिखी है।
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज