योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 52

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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दूसरा अध्याय
श्रीकृष्णचन्द्र का वंश


कृष्ण के जन्म के समय यादवों की गद्दी पर उग्रसेन का पुत्र कंस विराजमान था जो अपने पिता को सिंहासन से उतारकर स्वयं गद्दी पर बैठा था। कंस जरासंध का दामाद था। यह जरासंध मगध देश का राजा और अपने समय का बड़ा प्रतापी था। इसी की सहायता से कंस अपने पूज्य पिता को जीते जी राज्य से च्युत करके स्वयं राजा बन गया और औरंगजेब की भाँति इसने पिता को बन्दीगृह का मुँह नहीं दिखलाया।

कंस अपने समय का ऐसा कृतघ्न तथा अत्याचारी राजा था कि उससे उसके अपने-पराये सब तंग थे और उससे छुटकारा पाने हेतु उसकी प्रजा परमात्मा से सदा प्रार्थना करती थी। उसके निंदनीय कार्यों में से पहला तो यही था कि उसने अपने पूज्य पिता का ऐसा अपमान किया और इस कुत्सित कार्य से अपने वंश को कलंकित किया। सत्य है, योग्य के पुत्र सदा योग्य नहीं हुआ करते। ऐसे ही कपूत ने अपने वंश की मान-मर्यादा को मिट्टी में मिला देते हैं। कंस का वृद्ध पिता उसके बुरे आचरण को देखकर भीतर-ही-भीतर कुढ़ा करता था। पैतृक स्नेह तथा वंश की कुलीनता के कारण उसका पिता उसके विरुद्ध विद्रोह नहीं करता था और उसके अत्याचारों को सहन करता था। भाई, बन्धु, धनी, राज्य-कर्मचारी, यहाँ तक कि प्रजा भी इसके निन्दनीय कार्यों से तंग थी और उच्चवंश का होने के कारण किसी में भी इतनी हिम्मत नहीं थी कि सबल वृक्ष की इस शाखा को तोड़ डाले और वृक्ष को इसके बुरे प्रभावों से बचाये। पर यह कब सम्भव था कि ऐसे अन्यायी की अनीतियाँ निरंतर बढ़ती जायें और परमात्मा की ओर से उसकी कुछ सुध न ली जाये।

वह अपने निन्दनीय कर्मों से कब तक परमात्मा की सृष्टि को तंग कर सकता था। पालन-पोषणकर्ता परमेश्वर भी उसके अत्याचारों का फल उसको देने वाला था। उसके अत्याचारों का अन्त अब निकट पहुँच गया था। उस जगतपिता ने मुक्त आत्माओं में से एक को फिर जन्म दिया जिससे उसके द्वारा संसार में फिर धर्म और न्याय का राज्य स्थापित हो और जन-साधारण में वह एक आदर्श स्वरूप बन जाय।

इधर पिताद्रोही कंस को भी लगने लगा कि मेरे पापों का परिणाम अब मुझे शीघ्र मिलेगा। उसके अन्तः करण से आवाज आई, "उठ; अब भी अपने आचरणों को सुधारने तथा सुपथ पर आने का समय है। अधर्म और पाप का साथ छोड़। पूर्वजों के यश को जो तूने कलंकित किया है धब्बे को मिटाने का यत्न कर।" पर जो आत्माएँ पाप करने में अभ्यस्त हो जाती हैं उनके लिए ऐसी ध्वनि किसी काम की नहीं होती। वे भयभीत होने पर भी और घोर पापों के करने में उद्यत होती हैं। उस समय तक उनके पाप बढ़ते जाते हैं जब तक उन्हें परमात्मा की ओर से समुचित दंड प्रत्यक्ष नहीं मिल जाता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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