योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
दूसरा अध्याय
श्रीकृष्णचन्द्र का वंश
कंस अपने समय का ऐसा कृतघ्न तथा अत्याचारी राजा था कि उससे उसके अपने-पराये सब तंग थे और उससे छुटकारा पाने हेतु उसकी प्रजा परमात्मा से सदा प्रार्थना करती थी। उसके निंदनीय कार्यों में से पहला तो यही था कि उसने अपने पूज्य पिता का ऐसा अपमान किया और इस कुत्सित कार्य से अपने वंश को कलंकित किया। सत्य है, योग्य के पुत्र सदा योग्य नहीं हुआ करते। ऐसे ही कपूत ने अपने वंश की मान-मर्यादा को मिट्टी में मिला देते हैं। कंस का वृद्ध पिता उसके बुरे आचरण को देखकर भीतर-ही-भीतर कुढ़ा करता था। पैतृक स्नेह तथा वंश की कुलीनता के कारण उसका पिता उसके विरुद्ध विद्रोह नहीं करता था और उसके अत्याचारों को सहन करता था। भाई, बन्धु, धनी, राज्य-कर्मचारी, यहाँ तक कि प्रजा भी इसके निन्दनीय कार्यों से तंग थी और उच्चवंश का होने के कारण किसी में भी इतनी हिम्मत नहीं थी कि सबल वृक्ष की इस शाखा को तोड़ डाले और वृक्ष को इसके बुरे प्रभावों से बचाये। पर यह कब सम्भव था कि ऐसे अन्यायी की अनीतियाँ निरंतर बढ़ती जायें और परमात्मा की ओर से उसकी कुछ सुध न ली जाये। वह अपने निन्दनीय कर्मों से कब तक परमात्मा की सृष्टि को तंग कर सकता था। पालन-पोषणकर्ता परमेश्वर भी उसके अत्याचारों का फल उसको देने वाला था। उसके अत्याचारों का अन्त अब निकट पहुँच गया था। उस जगतपिता ने मुक्त आत्माओं में से एक को फिर जन्म दिया जिससे उसके द्वारा संसार में फिर धर्म और न्याय का राज्य स्थापित हो और जन-साधारण में वह एक आदर्श स्वरूप बन जाय। इधर पिताद्रोही कंस को भी लगने लगा कि मेरे पापों का परिणाम अब मुझे शीघ्र मिलेगा। उसके अन्तः करण से आवाज आई, "उठ; अब भी अपने आचरणों को सुधारने तथा सुपथ पर आने का समय है। अधर्म और पाप का साथ छोड़। पूर्वजों के यश को जो तूने कलंकित किया है धब्बे को मिटाने का यत्न कर।" पर जो आत्माएँ पाप करने में अभ्यस्त हो जाती हैं उनके लिए ऐसी ध्वनि किसी काम की नहीं होती। वे भयभीत होने पर भी और घोर पापों के करने में उद्यत होती हैं। उस समय तक उनके पाप बढ़ते जाते हैं जब तक उन्हें परमात्मा की ओर से समुचित दंड प्रत्यक्ष नहीं मिल जाता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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