योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
7. पुराणों की प्राचीनता
इस पुस्तक में कृष्ण विषयक जो घटनाएँ हमने एकत्र की हैं उनके पढ़ने से पाठकों को यह विदित हो जाएगा कि कृष्ण महाराज का अवतार मानना कहाँ तक सत्य है। हमारी राय है कि कृष्णचन्द्र ने कभी स्वयं इस बात का दावा नहीं किया और न उनके समय में किसी ने उनको यह पदवी ही दी। ये बातें नई गढ़न्त हैं और बौद्ध समय के पश्चात हुई हैं। समस्त वैदिक साहित्य अवतार सिद्धान्त के विरुद्ध है। वेद पुकार-पुकारकर कहता है कि परमेश्वर कभी देह धारण नहीं करता।[1] यूरोपीय विद्वान भी इस बात में हमसे सहमत हैं और कहते हैं कि अवतारों का सिद्धान्त बौद्धमत के पश्चात प्रचलित हुआ। इससे पहले भारतवर्ष में मूर्तिपूजा या अवतारों के सिद्धान्त को मानने वाला कोई भी नहीं था। हम इस पुस्तक के अन्तिम भाग में इस बात पर विचार करेंगे कि कृष्ण का चरित हमारे इस मन्तव्य की कहाँ तक पुष्टि करता है तथा पाठक भी इसके अध्ययन से उपयुक्त सम्मति स्थिर कर सकेंगे। सहृदय पाठक! हम इन पृष्ठों में आपके सम्मुख एक महापुरुष का जीवन पेश करते हैं। श्रीकृष्ण यद्यपि अवतार न थे, परन्तु मनुष्यों की सूची में ऐसे श्रेष्ठतम आचरण के मनुष्य थे जिनको संस्कृत विद्वानों ने ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ की पदवी दी है। वह अपने समय के महान शिक्षक थे, योद्धा तथा विद्यासम्पन्न थे। उनकी जीवनी हमारे लिए आदर्श रूप है। हम उनकी शिक्षा से बहुत कुछ लाभ उठा सकते हैं। हमारी राय में आधुनिक छात्रमण्डली को उनकी जीवनी ध्यानपूर्वक पढ़नी चाहिए, क्योंकि यूरोप का नास्तिक दर्शन बहुत-से हिन्दू युवकों के चित्त को चलायमान करके उनको हिन्दू धर्म के यथार्थ तत्त्व से पराङमुख कर रहा है और इनके दल के दल यूरोपियन जीवन-दर्शन के पीछे भागे जा रहे हैं। उनकी दृष्टि में अच्छे स्वादिष्ट पकवान खाने, सुन्दर वस्त्र-आभूषण पहनने तथा फैशनेबल सवारियों में बैठकर सुख भोग से दिन काटने के अतिरिक्त जीवन का कुछ और उद्देश्य नहीं। आत्मा को वे कोई चीज नहीं समझते, धर्म को वे घृणा की दृष्टि से देखते हैं तथा यावत सांसारिक आपत्तियों को इसी का कारण समझते हैं। वे इसी में भारतवर्ष का हित समझते हैं कि इसका सर्वनाश कर दिया जाय और जनसाधारण के हितार्थ एक लोकपालित राज्य स्थापित करके एक ‘कामनवेल्थ’ खड़ा किया जाय जिसमें कोई किसी से यह न पूछे कि तेरा धर्म क्या है? और तू कोई धर्म रखता है या नहीं? उनकी सम्मति में धर्म संबंधी सब पुस्तकें समुद्र में फेंक दी जाएँ तथा धर्मसभाओं को देश निकाला दे दिया जाय। उनकी राय है कि ऐसा न करने से देश का उद्धार नहीं हो सकता। भारतवर्ष का राजनीतिक हित भी इसी पर निर्भर है कि किसी को दूसरे के आचरण पर प्रश्न करने का अधिकार न हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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