3. अवतारों की यथार्थता
आर्यावर्त में सबसे पहले बौद्ध धर्म वालों की शिक्षा से लोगों को परमात्मा के अस्तित्व में महान शंका उत्पन्न हुई और इस पवित्र भूमि के रहने वाले परमात्मा की उपासना के उच्चासन से गिरकर मानव-पूजन के अंधकार रूपी पाश में आ फँसे। उपासना की यह परिपाटी जनसाधारण में ऐसी प्रचलित हुई कि वैदिक धर्मोपदेशकों ने भी बौद्ध धर्मानुयायी बनना अपने लिए हितावह विचारा। ब्राह्मणों ने महात्मा बुद्ध के स्थान में श्रीरामचन्द्र और श्रीकृष्ण को देवता बनाकर अवतारों की पदवी दी। धीरे-धीरे इस भाव ने यहाँ तक जोर पकड़ा कि कुछ काल पश्चात पौराणिक भाषा के समस्त ग्रन्थों में इसी की चर्चा दिखाई देने लगी और चारों ओर अवतार प्रकट होने लगे। कवियों ने जो महान पुरुषों के जीवन लिखने में अपने उच्च विचारों को प्रकट किया था खगोल विद्या पढ़कर तथा सब प्राकृतिक दृश्यों को देखकर काव्यबद्ध करने में जो समय व्यतीत किया था, उन कविजनों के परिश्रम और संस्कृत विद्या को पौराणिक समय के धार्मिक ग्रन्थ रचयिताओं ने समयानुकूल परिवर्तित कर दिया।
बस फिर क्या था, विद्या तथा धर्म के तत्त्ववेत्ताओं ने इस परिपाटी की ऐसी चाल चला दी कि लोक-परलोक के प्रायः सभी सिद्धान्त चाहे अच्छे हों यो बुरे परमेश्वर कृत कार्यों में सम्मिलित कर लिए गये और जनसाधारण को कारण और कर्ता में भेदाभेद का विचार न रहा। महान पुरषों के जीवन चरित्र इस साँचे में ढाले गये, कि दूसरी जाति वाले उनको मिथ्या, बनावटी और अपवित्र समझने लगे।
|