योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 20

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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प्रस्तावना


तथ्य तो यह है कि हिन्दुओं के विचारों को प्रकट करते हुए हिन्दी शब्दों का प्रयोग आवश्यक है[1] बल्कि कुछ विद्वान तो असल उर्दू उसको कहते हैं जिसमें अरबी-फारसी शब्द बहुत कम हों या बिल्कुल न हों। उर्दू में से फारसी व अरबी के शब्द निकाल दिये जाएँ तो शुद्ध हिन्दी रह जाती है। भेद इतना है कि जो शब्द हिन्दी में साधारणतः प्रयोग में नहीं आते वे मुसलमान महाशयों को बुरे मालूम होते हैं और वे उनको उर्दू नहीं कहते, परन्तु जो शब्द साधारण तौर पर प्रयोग में आते हैं उनको वह उर्दू समझते हैं। अतः जो हिन्दू अपने स्वजातीय भाइयों के लिए पुस्तकें लिखते हैं जिनमें उनके धार्मिक या जातीय विचार या अवस्थाओं का उल्लेख है उनमें हिन्दी व संस्कृत के शब्दों का प्रयोग अनुचित नहीं है। कैसे सम्भव है कि कोई हिन्दू हिन्दुओं के लिए पुस्तक लिखता हुआ कृष्ण, अर्जुनयुधिष्ठिर के व्याख्यानों का अनुवाद उर्दू भाषा में करे और क्लिष्ट धार्मिक विचारों के प्रकट करने के लिए फारसी व अरबी के कठिन शब्द तलाश करे।

हिन्दू स्त्रियों के व्याख्यानों का अनुवाद करता हुआ फारसी व अरबी के शब्दों का प्रयोग तो बहुत ही बुरा मालूम होता है। ऊपर लिखी बातों से हमारे विचार में हमारी भाषा पर जो आक्षेप किया जाता है वह हमको उपयुक्त नहीं लगता। यदि उद्योग करें तो हम मुसलमानी उर्दू में भी अपने विचारों को प्रकट कर सकते हैं, परन्तु हमें ऐसा करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती और न इसमें कुछ लाभ ही प्रतीत होता है। वरंच इसके विपरीत यदि हम ऐसा करें तो बहुत-से हिन्दू भाई हमारे लेखों से पूरा लाभ भी न उठा सकेंगे। इसके अतिरिक्त यह स्पष्ट है कि पुस्तकें लिखना और उनसे द्रव्य कमाना या केवल भाषा का लालित्य दिखाना न तो हमारा पेशा है और न हमारा उद्देश्य है। हम तो अवकाश के समय अपने विचारों को इस अभिप्राय से प्रस्तुत करते हैं कि जन लोगों तक हम अपने विचारों को व्याख्यानों द्वारा नहीं पहुँचा सकते, उन तक अपने विचारों को लेख द्वारा पहुँचाएँ। यदि हम उस समय को जो बहुत कम होता है, उर्दू भाषा के लालित्य तथा उसमें अपनी योग्यता व विद्वत्ता दिखाने में खर्च करें, तो शायद हमसे कुछ भी न बन सकेगा।

तथ्य तो यह है कि भारतवर्ष की तमाम देशी भाषाओं में इस समय परिवर्तन हो रहा है। इनमें नये-नये विचारों को प्रकट किये जाने के लिए भिन्न-भिन्न भाषाओं के आश्रय की आवश्यकता है। किसी तरह भी यह नहीं हो सकता कि लोग उर्दू, फारसी की पवित्रता को स्थिर रखने के लिए उस सुगम प्रणाली को हाथ से छोड़ दें और स्वदेशी साहित्य की उन्नति को रोक दें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. देखो मौलाना मौलवी अल्ताफ हुसैन हाली की मनाजाते बेवा

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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