योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
प्रस्तावना
हिन्दू स्त्रियों के व्याख्यानों का अनुवाद करता हुआ फारसी व अरबी के शब्दों का प्रयोग तो बहुत ही बुरा मालूम होता है। ऊपर लिखी बातों से हमारे विचार में हमारी भाषा पर जो आक्षेप किया जाता है वह हमको उपयुक्त नहीं लगता। यदि उद्योग करें तो हम मुसलमानी उर्दू में भी अपने विचारों को प्रकट कर सकते हैं, परन्तु हमें ऐसा करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती और न इसमें कुछ लाभ ही प्रतीत होता है। वरंच इसके विपरीत यदि हम ऐसा करें तो बहुत-से हिन्दू भाई हमारे लेखों से पूरा लाभ भी न उठा सकेंगे। इसके अतिरिक्त यह स्पष्ट है कि पुस्तकें लिखना और उनसे द्रव्य कमाना या केवल भाषा का लालित्य दिखाना न तो हमारा पेशा है और न हमारा उद्देश्य है। हम तो अवकाश के समय अपने विचारों को इस अभिप्राय से प्रस्तुत करते हैं कि जन लोगों तक हम अपने विचारों को व्याख्यानों द्वारा नहीं पहुँचा सकते, उन तक अपने विचारों को लेख द्वारा पहुँचाएँ। यदि हम उस समय को जो बहुत कम होता है, उर्दू भाषा के लालित्य तथा उसमें अपनी योग्यता व विद्वत्ता दिखाने में खर्च करें, तो शायद हमसे कुछ भी न बन सकेगा। तथ्य तो यह है कि भारतवर्ष की तमाम देशी भाषाओं में इस समय परिवर्तन हो रहा है। इनमें नये-नये विचारों को प्रकट किये जाने के लिए भिन्न-भिन्न भाषाओं के आश्रय की आवश्यकता है। किसी तरह भी यह नहीं हो सकता कि लोग उर्दू, फारसी की पवित्रता को स्थिर रखने के लिए उस सुगम प्रणाली को हाथ से छोड़ दें और स्वदेशी साहित्य की उन्नति को रोक दें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ देखो मौलाना मौलवी अल्ताफ हुसैन हाली की मनाजाते बेवा
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