योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 2

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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ग्रन्थकार लाला लाजपतराय


1882 के अन्तिम दिनों में वे पहली बार आर्यसमाज लाहौर के वार्षिक उत्सव में सम्मिलित हुए। इस मार्मिक प्रसंग का वर्णन स्वयं लाला जी ने अपनी आत्मकथा में इस प्रकार किया है- "उस दिन स्वर्गीय लाला मदनसिंह बी. ए.[1] का व्याख्यान था। उनको मुझसे बहुत प्रेम था। उन्होंने व्याख्यान देने से पहले समाज मंदिर की छत पर मुझे अपना लिखा व्याख्यान सुनाया और मेरी सम्मति पूछी। मैंने उस व्याख्यान को बहुत पसन्द किया। जब मैं छत से नीचे उतरा तो लाला साँईदास जी[2] ने मुझे पकड़ लिया और अलग ले जाकर कहने लगे कि हमने बहुत समय तक इन्तजार किया है कि तुम हमारे साथ मिल जाओ। मैं उस घड़ी को भूल नहीं सकता। वह मेरे से बातें करते थे, मेरे मुँह की ओर देखते थे तथा मेरी पीठ पर प्यार से हाथ फेरते थे। मैंने उनको जवाब दिया कि मैं तो उनके साथ हूँ। मेरा इतना कहना था कि उन्होंने फौरन समाज के सभासद बनने का प्रार्थना-पत्र मँगवाया और मेरे सामने रख दिया। मैं दो-चार मिनट तक सोचता रहा, परन्तु उन्होंने कहा कि मैं तुम्हारे हस्ताक्षर लिए बिना तुम्हें जाने न दूँगा। मैंने फौरन हस्ताक्षर कर दिये। उस समय उनके चेहरे पर प्रसन्नता की जो झलक थी उसका वर्णन मैं नही कर सकता। ऐसा मालूम होता था कि उनको हिन्दुस्तान की बादशाहत मिल गई है। उन्होंने एकदम पं. गुरुदत्त को बुलाया और सारा हाल सुनाकर मुझे उनके हवाले कर दिया। वह भी बहुत खुश हुए। लाला मदन सिंह के व्याख्यान की समाप्ति पर लाला साँईदास ने मुझे और पं. गुरुदत्त को मंच पर खड़ा किया। हम दोनों से व्याख्यान दिलवाये। लोग बहुत खुश हुए और खूब तालियाँ बजाई। इन तालियों ने मेरे दिल पर जादू का-सा असर किया। मैं प्रसन्नता और सफलता की मस्ती में झूमता हुआ अपने घर को लौटा।"[3]

यह है लाला जी के आर्यसमाज में प्रवेश की कथा। लाला साँईदास आर्यसमाज के प्रति इतने अधिक समर्पित थे कि वे होनहार नवयुवकों को इस संस्था में प्रविष्ट करने के लिए सदा तत्पर रहते थे। स्वामी श्रद्धानन्द[4] को आर्यसमाज में लाने का श्रेय भी उन्हें ही है। 30 अक्टूबर, 1883 को जब अजमेर में ऋषि दयानन्द का देहान्त हो गया तो 9 नवम्बर, 1883 को लाहौर आर्यसमाज की ओर से एक शोकसभा का आयोजन किया गया। इस सभा के अन्त में यह निश्चय हुआ कि स्वामी जी की स्मृति में एक ऐसे महाविद्यालय की स्थापना की जाये, जिसमें वैदिक साहित्य, संस्कृत तथा हिन्दी की उच्च शिक्षा के साथ-साथ अंग्रेजी और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान में भी छात्रों को दक्षता प्राप्त कराई जाये। 1886 में जब इस शिक्षण संस्था की स्थापना हुई तो आर्यसमाज के अन्य नेताओं के साथ लाला लाजपतराय का भी इसके संचालन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा तथा वे कालान्तर में डी. ए. वी. कॉलेज, लाहौर के महान स्तम्भ बने।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. डी. ए. वी. कॉलेज के संस्थापकों में प्रमुख
  2. आर्यसमाज लाहौर के प्रथम मंत्री
  3. लाला लाजपतराय की आत्मकथा - नवयुग, ग्रंथमाला, लाहौर से प्रकाशित, 1932
  4. तत्कालीन लाला मुंशीराम

संबंधित लेख

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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