योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 145

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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पैंतीसवाँ अध्याय
कृष्ण महाराज की शिक्षा


यह वह संजीवनी बूटी है जिसको पाने के लिए दुनिया के बड़े-से-बड़े राजा-महाराजा तड़पते हुए मर गये। यह वह अमृत है जिसको पीकर मनुष्य मरने-जीने के दुःख से छूट जाता है और जिसको प्राप्त करके मोती मिट्टी दीख पड़ते हैं। यह वह नुस्खा है जिससे दुःख, बीमार की बीमारी, बेचैन की बेचैनी और व्याकुल, अशान्त आत्मा की व्याकुलता और अशान्ति इस तरह भाग जाती है जैसे मनुष्य की बास पाकर जंगली हिरन भाग जाता है।

यह वह ज्ञान है जो मनुष्य के लिए इस दुःख-सागर-संसार को शान्ति-सरोवर और सुख का धाम बना देता है। जो इसको सब बंधनों से छुड़ाकर केवल एक प्रभु के चरणकमल पद को प्राप्त करता है, जहाँ पहुँचकर जीवात्मा आनन्द ही आनन्द में विश्राम करता है।

पाठको! क्या आप समझे। यह वह शिक्षा है जो हमको बताती है कि ड्यूटी[1] ड्यूटी के ही लिए करना चाहिए। यह वह शीश है जो हमको धर्म का सच्चा स्वरूप दिखाता है और समझाता है कि धर्म करने के वास्ते और कोई गरज नहीं होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त वह धर्म है या ईश्वराज्ञा है या उस परमात्मा का नियम है, जिसके नियमों में सर्वशक्तिमान होने पर भी तमाम आत्माओं को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त है।

हे आर्य संतान! क्या आप इस गम्भीर युक्ति का अनुभव कर सकते हैं? क्या दासत्त्व की दृढ़ जंजीरों ने, क्या पेट की चिन्ता ने, क्या प्रतिष्ठा के झूठे विचार ने क्या लक्ष्य-शून्य वैराग्य और झूठे त्याग के धोखा देने वाले दर्शन ने, क्या जीविका की चिन्ता में दत्तचित्त हुए, सिर्फ रोटी और रुपयों को ही ईश्वर बताने वाली शिक्षा ने, क्या किंचित मात्र द्रव्य के बदले में प्राप्त की हुई विद्या ने, क्या मिथ्या विश्वास ने, आपके मन और बुद्धि को इस योग्य छोड़ा है कि आप इस परम सत्य को, सारे संसार के दर्शन के जौहर को, इस असल तत्त्व को समझकर अपने जीवन का ताबीज बना सके। यदि श्रीकृष्ण महाराज फिर जन्म लेवें और अपनी मीठी और सुरीली वंशी से उस आनन्दमय राग को फिर अलापें और सब आर्य संतानों को बतलावें कि वह धर्म-पथ से च्युत होकर कहाँ से कहाँ जा पहुँचे हैं। यदि बूढ़ी भारत जननी दस पुत्र इस तरह के उत्पन्न करे जो धर्म के इस मानचित्र को सामने रखकर धर्म की सीढ़ी पर चढ़ने का प्रयत्न करें और इस सीढ़ी की धुन में न अमीरी की परवाह करें न गरीबी की, न मित्र की परवाह करें न शत्रु की, न जिन्दगी की परवाह करें और न मौत की।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कर्त्तव्य

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योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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