योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
पैंतीसवाँ अध्याय
कृष्ण महाराज की शिक्षा
यह वह ज्ञान है जो मनुष्य के लिए इस दुःख-सागर-संसार को शान्ति-सरोवर और सुख का धाम बना देता है। जो इसको सब बंधनों से छुड़ाकर केवल एक प्रभु के चरणकमल पद को प्राप्त करता है, जहाँ पहुँचकर जीवात्मा आनन्द ही आनन्द में विश्राम करता है। पाठको! क्या आप समझे। यह वह शिक्षा है जो हमको बताती है कि ड्यूटी[1] ड्यूटी के ही लिए करना चाहिए। यह वह शीश है जो हमको धर्म का सच्चा स्वरूप दिखाता है और समझाता है कि धर्म करने के वास्ते और कोई गरज नहीं होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त वह धर्म है या ईश्वराज्ञा है या उस परमात्मा का नियम है, जिसके नियमों में सर्वशक्तिमान होने पर भी तमाम आत्माओं को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त है। हे आर्य संतान! क्या आप इस गम्भीर युक्ति का अनुभव कर सकते हैं? क्या दासत्त्व की दृढ़ जंजीरों ने, क्या पेट की चिन्ता ने, क्या प्रतिष्ठा के झूठे विचार ने क्या लक्ष्य-शून्य वैराग्य और झूठे त्याग के धोखा देने वाले दर्शन ने, क्या जीविका की चिन्ता में दत्तचित्त हुए, सिर्फ रोटी और रुपयों को ही ईश्वर बताने वाली शिक्षा ने, क्या किंचित मात्र द्रव्य के बदले में प्राप्त की हुई विद्या ने, क्या मिथ्या विश्वास ने, आपके मन और बुद्धि को इस योग्य छोड़ा है कि आप इस परम सत्य को, सारे संसार के दर्शन के जौहर को, इस असल तत्त्व को समझकर अपने जीवन का ताबीज बना सके। यदि श्रीकृष्ण महाराज फिर जन्म लेवें और अपनी मीठी और सुरीली वंशी से उस आनन्दमय राग को फिर अलापें और सब आर्य संतानों को बतलावें कि वह धर्म-पथ से च्युत होकर कहाँ से कहाँ जा पहुँचे हैं। यदि बूढ़ी भारत जननी दस पुत्र इस तरह के उत्पन्न करे जो धर्म के इस मानचित्र को सामने रखकर धर्म की सीढ़ी पर चढ़ने का प्रयत्न करें और इस सीढ़ी की धुन में न अमीरी की परवाह करें न गरीबी की, न मित्र की परवाह करें न शत्रु की, न जिन्दगी की परवाह करें और न मौत की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कर्त्तव्य
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