योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 143

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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पैंतीसवाँ अध्याय
कृष्ण महाराज की शिक्षा


सोलहवें अध्याय में फिर इसी विषय को और भी साफ कर दिया है-

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।23।।

अर्थ- जो पुरुष शास्त्रों की आज्ञा का उल्लंघन कर अपनी इच्छानुसार आचरण करता है उसको न सिद्धि की प्राप्ति होती है, न सुख की और न सच्चा मार्ग ही मिलता है।

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्र विधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।।24।।

अर्थ- इसलिए उचित है कि शास्त्रों के प्रमाण से यह निश्चय किया जावे कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। शास्त्र विधि को जानकर ही इस संसार में कर्म करना चाहिए।

अध्याय 17 और 18 में कर्मकाण्ड के दर्शन का और अधिक विस्तार से वर्णन किया है। तात्पर्य यह है कि इस विषय में सारी गीता का तत्त्व यही है जो निम्नलिखित प्रमाणों में पाया जाता है। जब हम यह विचार करते हैं कि इन सारे उपदेशों से असल मतलब भी यही था कि अर्जुन को लड़ाई के लिए कटिबद्ध किया जावे, तो हमारा यह विचार अंतिम सीमा पर पहुँच जाता है कि वास्तव में यही वह उपदेश है जो कृष्ण महाराज ने कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को दिया। सम्भव है इसकी व्याख्या में धर्म के अन्यान्य अंगों का भी इसी प्रकार वर्णन किया गया हो, परन्तु यह विचार में नहीं आ सकता कि गीता के सारे दर्शन की उस समय शिक्षा दी गई हो।

महाभारत में भी जहाँ कृष्ण को वार्तालाप करने का अवसर मिला है वहाँ भी उन्होंने इसी रीति से अपनी युक्तियों का वर्णन किया है। महाभारत का युद्ध समाप्त होने के पश्चात जब युधिष्ठिर ने राजपाट छोड़कर जंगल जाने की इच्छा की तो फिर कृष्ण महाराज उसी उपदेश से युधिष्ठिर को प्रवृत्ति मार्ग पर लाये, यहाँ तक कि उन्हें अश्वमेध यज्ञ करने को उत्साहित किया। युधिष्ठिर को समझाते हुए कृष्ण ने कहा- "हे युधिष्ठिर, यद्यपि तुमने बाहरी शत्रुओं को मार लिया है, परन्तु अब समय आ गया है कि तुम उस लड़ाई के लिए तैयार हो जाओ जो प्रत्येक पुरुष को अकेले ही लड़नी पड़ती है अर्थात अपने मन से ही इस अपार और अथाह मन की महिमा जानने के लिए कर्म और ध्यान के हथियार बरतने पड़ेंगे, क्योंकि इस लड़ाई में लोहे के हथियार काम नहीं देंगे और न मित्र या सेवक ही कुछ सहायता कर सकेंगे। यह लड़ाई तो अकेले ही लड़नी पड़ेगी। इसमें यदि तुम उत्तीर्ण नहीं हुए तो तुम्हारा बुरा हाल होगा।"

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योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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