योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
पैंतीसवाँ अध्याय
कृष्ण महाराज की शिक्षा
अर्थ- संन्यासी और योगी वही है जो कर्मो के फल की परवाह न करता हुआ कर्म को कर्त्तव्य समझकर करता है, न कि वह जो कभी आग नहीं जलाता और कुछ कर्म नहीं करता। श्लोक 16 में फिर कहा है कि-
अर्थ- हे अर्जुन, योग उसके लिए नहीं है जो अधिक खाता है या जो बहुत ही कम खाता है और न उसके वास्ते है जो बहुत सोता है या बहुत जागता है।
अर्थ- दुख नाश कर देने वाला योग उसके लिए है जो नियम से खाता है, नियम से सोता है और जागता है, और नियम से ही सब काम करता है। नवें अध्याय के 27वें श्लोक में फिर लिखा है।
अर्थ- सब कर्मो को ईश्वर परायण होकर करने का उपदेश दिया है। हे कुन्तीपुत्र, जो कुछ तू करे, जो कुछ तू खाये, जो कुछ तू भेंट करे, जो कुछ तू दान करे, अथवा जो तू तप करे वह सब मुझे अर्पण कर। |
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