योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
पैंतीसवाँ अध्याय
कृष्ण महाराज की शिक्षा
अर्थ- हे धनंजय[1] ईश्वरीय इच्छा में योग करता हुआ तू राग का त्याग कर। सिद्धि और असिद्धि को एक-सा जानकर तू कर्मो को कर, क्योंकि इसी समता का नाम योग हैं।
अर्थ- न तुझे कर्मो से मतलब है न उनके फलों से। अस्तु, कर्मो के फल को अपना उद्देश्य मत बना और न अकर्म की अवस्था से दिल लगा।[2] हे अर्जुन, सुख-दुख, हानि-लाभ और हार-जीत को एक-सा समझकर लड़ाई के लिए कमर बाँध, क्योंकि उसी से तू पाप से बच सकता है।
तीसरे अध्याय के 8वें श्लोक में फिर यही बात दोहराई गई है।
अर्थ- अस्तु, तू सत्य कर्म कर क्योंकि कर्म करना अकर्म से कहीं उत्तम है। बिना कर्म किये तो शरीर-यात्रा भी नहीं हो सकती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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