योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
सम्पादकीय
कृष्ण के इस महनीय, निष्पाप तथा निष्कलुष चरित्र की ओर पुनः मानव जाति का ध्यान आकृष्ट करने का श्रेय उन्नीसवीं सदी के महान धर्माचार्य तथा भारतीय नवजागरण के ज्योतिपुरुष स्वामी दयानन्द को है। उन्होंने स्वरचित ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में कृष्णचरित की श्लाघा करते हुए लिखा- ʺदेखो, कृष्ण का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है। उनका गुण-कर्म-स्वभाव आप्त पुरुषों के सदृश है जिसमें कोई अधर्म का आचरण श्रीकृष्ण ने जन्म से मरण-पर्यन्त बुरा काम कुछ भी किया हो, ऐसा नहीं लिखा।ʺ स्वामी दयानन्द के ही समकालीन बँगला के साहित्य-सम्राट बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने 1886 में महाभारत को आधार बनाकर कृष्ण चरित्र शीर्षक एक विवेचनामूलक जीवनचरित्र लिखा जिसमें भारतोक्त कृष्ण के इतिवृत्त को ही प्रमाणिक तथा विश्वसनीय मानकर पुराणों में वर्णित कृष्ण-प्रसंग को असंगत, बुद्धि तथा युक्ति विरुद्ध फलतः अमान्य ठहराया। कृष्ण-चरित्र के समग्र अनुशीलन के पश्चात बंकिम जिस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं उसे उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत किया जाना उचित है- ʺकृष्ण सर्वगुणसम्पन्न हैं। इनकी सब वृत्तियों का सर्वांग सुन्दर विकास हुआ है। ये सिंहासनासीन होकर भी उदासीन हैं, धनुर्धारी होकर भी धर्मवेत्ता हैं, राजा होकर भी पण्डित हैं, शक्तिमान होकर भी प्रेममय हैं। यह वही आदर्श है जिससे युधिष्ठिर ने धर्म सीखा और स्वयं अर्जुन जिसका शिष्य हुआ। जिसके चरित्र के समान महामहिमामण्डित चरित्र मनुष्य-भाषा में कभी वर्णित नहीं हुआ।ʺ[3] महान देशभक्त तथा भारत के स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी नायक लाला लाजपतराय ने विगत शताब्दी के अन्त में कृष्ण-चरित्र का विश्लेषण करते हुए एक उपयोगी ग्रन्थ उर्दू में ‘योगिराज महात्मा श्रीकृष्ण का जीवनचरित्र’ शीर्षक लिखा था। लाला जी का साहित्य मुख्य रूप से उर्दू तथा अंग्रेजी में ही लिखा था, परन्तु उनकी उर्दू अरबी तथा फारसी के क्लिष्ट एवं अप्रचलित शब्दों से लदी नहीं होती थी। उन्होंने अपनी इस पुस्तक की भूमिका में उर्दू के उस स्वरूप का समर्थन किया है जो फारसी-अरबी के कठिन शब्दों से बोझिल न हो। ऐसी कठिन उर्दू को उन्होंने मुसलमानी उर्दू की संज्ञा दी थी, जिसका लिखना यद्यपि लाला जी जैसे व्यक्ति के लिए कठिन नहीं था, किन्तु उन्होंने उस गंगा-जमनी[4] उर्दू में ही साहित्य लिखा जो जनसाधारण के लिए बोधगम्य थी। ध्यातव्य है कि पंजाब के आर्यसमाजी लेखकों ने उर्दू की एक ऐसी शैली विकसित कर दी थी जिसमें संस्कृत के तद्भव शब्दों का बहुतायत से प्रयोग होता है, जिससे उसका हिन्दुई चरित्र उजागर होने लगा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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