योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 137

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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पैंतीसवाँ अध्याय
कृष्ण महाराज की शिक्षा


उपनिषदों की अद्वितीय धार्मिक शिक्षा से यह कदापि लक्ष्य में नहीं आता कि इस शिक्षा का आचार्य कौन था और इस अमूल्य उक्तियों के लिए वे किस महापुरुष के चिर ऋणी हैं। कहीं-कहीं इतिहास इत्यादि में ऋषियों, मुनियों तथा आचार्यों के नाम आते हैं, परन्तु उनके वर्णन में क्रम से यह भी मालूम होता है कि एक ही नाम के बहुत-से ऋषि हो चुके हैं- जैसे आज हमारे लिए यह निश्चित करना असंभव है कि वर्तमान कि वर्तमान मनुस्मृति कौन-से मनु महाराज की रचना है? प्राचीन आर्य लोग परमेश्वर को ही आदि गुरु और सच्चा उपदेशक मानते थे इसलिए उन्होंने कभी इस बात की चेष्टा नहीं की कि वे अपने नाम से कोई धर्म प्रचलित करें। उनके लेखों से ज्ञात होता है कि इस प्रकार के कार्य को ये अधर्म और पाप समझते थे। धर्म-चर्चा, धार्मिक विचार और वादानुवाद करना तो वे उचित समझते थे, परन्तु अपने नाम से किसी नवीन धर्म का प्रचार करना या कोई नवीन शिक्षा देना उनके विचार से सर्वथा अनुचित था।

प्राचीन हिन्दुओं के सब आचार्य, ऋषि या मुनि जो कुछ शिक्षा देते थे उसको वे अपने पूर्व पुरुषों, वेद या शास्त्रों का आदेश बतलाते थे। अपनी तरफ से कोई नवीन शिक्षा देने का साहस उन्होंने कदापि नहीं किया। बस वर्तमान समय में हमारी तरफ से यह प्रयत्न हुआ कि हम उनमें किसी एक को चुनकर उसी के नाम से किसी मत को जारी कर दें। यह सचमुच उनके महत्त्व को कम करना है। इस पर भी तुर्रा यह है कि हमारी यह कार्यवाही एक ऐसे वीर क्षत्रिय राजपुत्र के साथ संबंध रखे जिसने कभी भी धर्म-प्रचार की चेष्टा ही नहीं की। हम पिछले परिच्छेद में कह चुके हैं कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं कि कभी कृष्ण महाराज ने सर्वसाधारण को धार्मिक शिक्षा देने की चेष्टा की हो। तब कृष्ण को किसी धर्म का व्यवस्थापक मानना व्यर्थ है। हम बतलाना चाहते हैं कि भगवद्गीता की सब युक्तियों को कृष्ण महाराज की शिक्षा समझना उचित नहीं। परन्तु विचार के लिए यदि ऐसा मान भी लिया जाये तो भी परिणाम तो यही निकलता है कि उन्होंने अर्जुन को युद्ध में प्रवृत्त करने के लिए वह उपदेश किया, जो गीता में है। यदि इसी उपदेश के कारण कृष्ण महाराज एक धर्म-विशेष के व्यवस्थापक माने जा सकते हैं तो क्या कारण है कि भीष्म महाराज को भी वही पदवी न दी जावे जिनके उपदेश कृष्ण महाराज के उपदेशों से गूढ़ता, विद्वत्ता, सत्यता और तात्त्विकता में किसी प्रकार कम नहीं है? क्या कोई हमको बतला सकता है कि भगवद्गीता में कौन-सी ऐसी शिक्षा है जो उससे पहले के बने हुए उपनिषदों और ब्राह्मणों में उपस्थित नहीं है या जो वेदों में भी पाई नहीं जाती? तब वह कौन-सी शिक्षा है जिसे हम कृष्णाइज़्म के नाम से प्रसिद्ध करें?

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योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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