योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
पैंतीसवाँ अध्याय
कृष्ण महाराज की शिक्षा
प्राचीन हिन्दुओं के सब आचार्य, ऋषि या मुनि जो कुछ शिक्षा देते थे उसको वे अपने पूर्व पुरुषों, वेद या शास्त्रों का आदेश बतलाते थे। अपनी तरफ से कोई नवीन शिक्षा देने का साहस उन्होंने कदापि नहीं किया। बस वर्तमान समय में हमारी तरफ से यह प्रयत्न हुआ कि हम उनमें किसी एक को चुनकर उसी के नाम से किसी मत को जारी कर दें। यह सचमुच उनके महत्त्व को कम करना है। इस पर भी तुर्रा यह है कि हमारी यह कार्यवाही एक ऐसे वीर क्षत्रिय राजपुत्र के साथ संबंध रखे जिसने कभी भी धर्म-प्रचार की चेष्टा ही नहीं की। हम पिछले परिच्छेद में कह चुके हैं कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं कि कभी कृष्ण महाराज ने सर्वसाधारण को धार्मिक शिक्षा देने की चेष्टा की हो। तब कृष्ण को किसी धर्म का व्यवस्थापक मानना व्यर्थ है। हम बतलाना चाहते हैं कि भगवद्गीता की सब युक्तियों को कृष्ण महाराज की शिक्षा समझना उचित नहीं। परन्तु विचार के लिए यदि ऐसा मान भी लिया जाये तो भी परिणाम तो यही निकलता है कि उन्होंने अर्जुन को युद्ध में प्रवृत्त करने के लिए वह उपदेश किया, जो गीता में है। यदि इसी उपदेश के कारण कृष्ण महाराज एक धर्म-विशेष के व्यवस्थापक माने जा सकते हैं तो क्या कारण है कि भीष्म महाराज को भी वही पदवी न दी जावे जिनके उपदेश कृष्ण महाराज के उपदेशों से गूढ़ता, विद्वत्ता, सत्यता और तात्त्विकता में किसी प्रकार कम नहीं है? क्या कोई हमको बतला सकता है कि भगवद्गीता में कौन-सी ऐसी शिक्षा है जो उससे पहले के बने हुए उपनिषदों और ब्राह्मणों में उपस्थित नहीं है या जो वेदों में भी पाई नहीं जाती? तब वह कौन-सी शिक्षा है जिसे हम कृष्णाइज़्म के नाम से प्रसिद्ध करें? |
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज