योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
उन्तीसवाँ अध्याय
महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व
नोट- द्रोण की मृत्यु के संबंध में भी एक किंवदन्ती है जो वास्तव में पीछे से मिलाई हुई मालूम होती है। यह इस प्रकार है। द्रोण ने युद्ध में इस प्रकार के शस्त्र प्रयोग किये जिन्हें दूसरी ओर के लोग नहीं जानते थे और इसलिए वे इन शस्त्रों की मार से बचने की प्रणाली से भी अनभिज्ञ थे। परिणाम यह हुआ कि द्रोण ने पाण्डव सेना को अत्यन्त हानि पहुँचाई। इस हानि को देखकर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को यह सलाह दी कि द्रोण को किसी-न-किसी प्रकार मारना चाहिए, चाहे इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कोई झूठी और अधर्म की चाल भी क्यों न चलनी पड़े। अतः उन्होंने यह सम्मति दी कि यदि द्रोण का पुत्र अश्वत्थामा मारा जाये तो वे लड़ना छोड़ देंगे। इसलिए झूठमूठ ही उनको यह खबर पहुँचा दी जाये कि अश्वत्थामा मर गया है। अर्जुन और युधिष्ठिर ने इस सलाह को अस्वीकार किया, परन्तु भीम और अन्य दरबारियों को यह चाल बहुत पसन्द आई। उन्होंने युधिष्ठिर पर दबाव डाला कि वे स्वयं अपने मुख से यह कहें, क्योंकि उनके अतिरिक्त और किसी के कथन का द्रोण विश्वास नहीं करेंगे। युधिष्ठिर ने बहुत कुछ संकोच किया परन्तु भीम इत्यादि ने उन पर बड़ा जोर डाला। अतः यह निश्चित करके अश्वत्थामा नाम के एक हाथी को मारा गया और द्रोण के आगे यह प्रकट किया गया कि तुम्हारा पुत्र अश्वत्थामा मर गया। द्रोण ने किसी के कहने पर इसका विश्वास नहीं किया और युधिष्ठिर से पूछा। युधिष्ठिर ने कहा कि "हाँ, अश्वत्थामा मारा गया" परन्तु धीरे से यह भी कह दिया-'हाथी'। द्रोण ने 'हाथी' तो सुना नहीं और अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर अत्यन्त दुखित हुए। यद्यपि उसके बाद भी वे बराबर लड़ते रहे परन्तु दिल टूट जाने से दुःखित होकर उन्होंने शस्त्र डाल दिये। उनके शस्त्र डालते ही विपक्षियों ने उनका सिर काट डाला। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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