योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 12

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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सम्पादकीय


जिस प्रकार वे नवीन साम्राज्य-निर्माता तथा स्वराज्यस्रष्टा युगपुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हुए, उसी प्रकार अध्यात्म तथा तत्त्व-चिन्तन के क्षेत्र में भी उनकी प्रवृत्तियाँ चरमोत्कर्ष पर पहुँच चुकी थीं। सुख-दुःख को समान समझने वाले, लाभ और हानि, जय और पराजय जैसे द्वन्द्वों को एक-सा मानने वाले, अनुद्विग्न, वीतराग तथा जल में रहने वाले कमल पत्र के समान सर्वथा निर्लेप, स्थितप्रज्ञ व्यक्ति को यदि हम साकार रूप में देखना चाहें तो वह कृष्ण से भिन्न अन्य कौन-सा होगा? प्रवृत्ति और निवृत्ति, श्रेय और प्रेय, ज्ञान और कर्म, ऐहिक और आमुष्मिक[1]जैसी आपाततः विरोधी दीखने वाली प्रवृत्तियों में अपूर्व सामंजस्य स्थापित कर उन्हें स्वजीवन में चरितार्थ करना कृष्ण जैसे महामानव के लिए ही सम्भव था। उन्होंने धर्म के दोनों लक्ष्यों-अभ्युदय और निःश्रेयस की उपलब्धि की। अतः यह निरपवाद रूप से कहा जा सकता है कि कृष्ण का जीवन आर्य आदर्शो की चरम परिणति है।

समकालीन सामाजिक दुरावस्था, विषमता तथा नष्टप्राय मूल्यों के प्रति भी वे पूर्ण जागरुक थे। उन्होंने पतनोन्मुख समाज को ऊर्ध्वगामी बनाया। स्त्रियों, शूद्रों बनवासी जनों तथा पीड़ित एवं शोषित वर्ग के प्रति उनके हृदय में अशेष संवेदना तथा सहानुभूति थी। गांधारी, कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा आदि आर्य-कुल ललनाओं को समुचित सम्मान देकर उन्होंने नारी वर्ग की प्रतिष्ठा बढ़ाई। निश्चय ही महाभारत युग में सामाजिक पतन के लक्षण दिखाई पड़ने लगे थे। गुण, कर्म तथा स्वभाव पर आश्रित मानी जाने वाली आर्यों की वर्णाश्रम व्यवस्था जन्मना जाति पर आधारित हो चुकी थी। ब्राह्मण वर्ग अपनी स्वभावगत शुचिता, लोकोपकार भावना, त्याग, सहिष्णुता, सम्मान के प्रति निर्लेपता जैसे सदगुणों को भुलाकर अनेक प्रकार के दूषित भावों को ग्रहण कर चुका था। आचार्य द्रोण जैसे शस्त्र और शास्त्र दोनों में निष्णात ब्राह्मण स्वाभिमान को तिलांजलि दे बैठे थे तथा सब प्रकार के अपमान को सहन करके भी करुवंशी राजकुमारों को शिक्षा देकर उदरपूर्ति कर रहे थे। कहाँ तो गुरुकुलों का वह युग, जिसमें महामहिम सम्राटों के राजकुमार भी शिक्षा ग्रहण करने के लिए आचार्य कुल में जाकर दीर्घकाल तक निवास करते थे और कहाँ महाभारत का वह युग जिसमें कुरुवृद्ध भीष्म के आग्रह[2] से द्रोणाचार्य से राजमहल को ही गुरुकुल अथवा विश्वविद्यालय का रूप दिया और उसमें शिष्य-शिष्य में भेद उत्पन्न करने वाली जो शिक्षा दी, उसका निकृष्ट फल दुर्योधन के रूप में प्रकट हुआ। सामाजिक समता के हास के इस युग में क्षत्रिय कुमारों में अपने अभिजात कुलोत्पन्न होने का मिथ्या गर्व पनपा तो उधर तथाकथित हीन कुल में जन्में कर्ण[3] को अपने पौरुष को प्रख्यापित करने के लिए कहना पड़ा-

सूतो वा सूतपुत्रो वा यो वा को वा भवाम्यहम्।
दैवायतं कुले जन्मः महायत्तं तु पौरुषम्।।

मैं चाहे सूत हूँ या सूत पुत्र, अथवा कोई। किसी कुल-विशेष में जन्म लेना यह तो दैव के अधीन है, मेरे पास तो मेरा पौरुष और पराक्रम ही है, जिसे मैं अपना कह सकता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. परलोक विषयक
  2. उसे आदेश ही कहना चाहिए
  3. वस्तुतः कर्ण तो कुन्ती का कानीन पुत्र था, किन्तु उसका पालन अधिरथ नामक एक सारथी (सूत) ने किया था।

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योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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