योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
सम्पादकीय
समकालीन सामाजिक दुरावस्था, विषमता तथा नष्टप्राय मूल्यों के प्रति भी वे पूर्ण जागरुक थे। उन्होंने पतनोन्मुख समाज को ऊर्ध्वगामी बनाया। स्त्रियों, शूद्रों बनवासी जनों तथा पीड़ित एवं शोषित वर्ग के प्रति उनके हृदय में अशेष संवेदना तथा सहानुभूति थी। गांधारी, कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा आदि आर्य-कुल ललनाओं को समुचित सम्मान देकर उन्होंने नारी वर्ग की प्रतिष्ठा बढ़ाई। निश्चय ही महाभारत युग में सामाजिक पतन के लक्षण दिखाई पड़ने लगे थे। गुण, कर्म तथा स्वभाव पर आश्रित मानी जाने वाली आर्यों की वर्णाश्रम व्यवस्था जन्मना जाति पर आधारित हो चुकी थी। ब्राह्मण वर्ग अपनी स्वभावगत शुचिता, लोकोपकार भावना, त्याग, सहिष्णुता, सम्मान के प्रति निर्लेपता जैसे सदगुणों को भुलाकर अनेक प्रकार के दूषित भावों को ग्रहण कर चुका था। आचार्य द्रोण जैसे शस्त्र और शास्त्र दोनों में निष्णात ब्राह्मण स्वाभिमान को तिलांजलि दे बैठे थे तथा सब प्रकार के अपमान को सहन करके भी करुवंशी राजकुमारों को शिक्षा देकर उदरपूर्ति कर रहे थे। कहाँ तो गुरुकुलों का वह युग, जिसमें महामहिम सम्राटों के राजकुमार भी शिक्षा ग्रहण करने के लिए आचार्य कुल में जाकर दीर्घकाल तक निवास करते थे और कहाँ महाभारत का वह युग जिसमें कुरुवृद्ध भीष्म के आग्रह[2] से द्रोणाचार्य से राजमहल को ही गुरुकुल अथवा विश्वविद्यालय का रूप दिया और उसमें शिष्य-शिष्य में भेद उत्पन्न करने वाली जो शिक्षा दी, उसका निकृष्ट फल दुर्योधन के रूप में प्रकट हुआ। सामाजिक समता के हास के इस युग में क्षत्रिय कुमारों में अपने अभिजात कुलोत्पन्न होने का मिथ्या गर्व पनपा तो उधर तथाकथित हीन कुल में जन्में कर्ण[3] को अपने पौरुष को प्रख्यापित करने के लिए कहना पड़ा-
मैं चाहे सूत हूँ या सूत पुत्र, अथवा कोई। किसी कुल-विशेष में जन्म लेना यह तो दैव के अधीन है, मेरे पास तो मेरा पौरुष और पराक्रम ही है, जिसे मैं अपना कह सकता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ परलोक विषयक
- ↑ उसे आदेश ही कहना चाहिए
- ↑ वस्तुतः कर्ण तो कुन्ती का कानीन पुत्र था, किन्तु उसका पालन अधिरथ नामक एक सारथी (सूत) ने किया था।
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