योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 114

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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सत्ताईसवाँ अध्याय
महाभारत का युद्ध


"यदि क्षत्रिय लड़ाई में मारा जाएगा तो वह सीधा स्वर्ग जाएगा। यदि तू सफल हुआ तो इस पृथ्वी का राज्य और सुख तेरे साथ रहेंगे।" पर अर्जुन के चित्त पर ऐसा आघात लगा था कि उसे समझाने का कुछ भी असर नहीं हुआ। निदान कृष्ण ने आत्मा के विषय का उपदेश करके अर्जुन में से आत्मा विषयक अज्ञान निकाल दिया। उन्होंने अर्जुन को समझाया, "आत्मा न तो जन्म लेता है और न मरता है। न कोई इसे जन्म दे सकता है और न मार सकता है। फिर तेरा यह विचार कैसा मिथ्या है कि मैं भीष्म और द्रोण को मारकर सांसारिक सुख भोगने की इच्छा नहीं रखता।

"न तुझमें यह शक्ति है, कि तू इनको मार सके और न उनमें यह शक्ति है कि वह तुझे मार सकें। आत्मा पर न तो लोहे की मार है और न अग्नि की। मरने और मारने वाला तो यह शरीर है जो आत्मा का वस्त्र है। यह शरीर नाशवान है और कर्म करने के लिए मनुष्य को दिया गया है। परमात्मा ने जो धर्म जीवात्मा के लिए नियत किया है उसे पूरा करने के लिए उसकी योग्यतानुसार उसे वह शरीर प्रदान किया जाता है। जीवात्मा का यह काम नहीं कि इस शरीर के रक्षार्थ अपना धर्म-कर्म छोड़ दे और मेरे-तेरे के भ्रम में पड़कर यथार्थ धर्म का परित्याग करे। जीवात्मा का यही धर्म है कि शरीर से वही काम ले जिसके लिए यह दिया गया है। यह शरीर धर्म के अनुकूल कर्म करने के लिए दिया गया है न कि अपनी इच्छानुसार काम करने के लिए। जो लोग अपनी इच्छा को प्रधान मानकर काम करते हैं वे कर्म के फेर में फँसे रहकर यथार्थ धर्म से दूर रह दुख-सुख के बन्धन में फँसे रहते हैं। परन्तु जो जीवात्मा अपनी इच्छा का परित्याग कर शरीर को निष्काम कर्म में लगाते हैं वे सच्चाई को पाकर शारीरिक प्रयोजन और उसके बन्धनों से स्वतंत्र हो जाते हैं और मोक्ष को प्राप्त होते हैं। अतएव तुझे उचित है कि क्षात्र धर्म का पालन करता हुआ मेरे और तेरे, अथवा इसके और उसके कुविचार को छोड़ दे और अपने धर्म पर स्थिर रह। ऐसा न करने से तू घोर पाप का भागी बनेगा और नरक में पड़ेगा।"

नोट- पाठक! यह कथन उस उपदेश का सार है जो कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में अर्जुन को दिया था और जिसके प्रभाववश अर्जुन फिर लड़ने को बद्धपरिकर हो गया था। साधारणतः यह विचारा जाता है कि गीता का समस्त उपदेश कृष्ण ने अर्जुन को युद्धक्षेत्र में किया था। हमको इसे मानने में संकोच है, पर यदि यह सत्य है तब भी गीता का सार वही है जो हमने ऊपर कहा है। जब तक लड़ाई होती रही तब तक कृष्ण बराबर अर्जुन के साथ रहे यद्यपि उन्होंने स्वयं शस्त्र नहीं चलाये, पर इसमें संदेह नहीं कि कृष्ण की उपस्थिति से पाण्डवों को बड़ी सहायता मिलती रही। सारी लड़ाई में वे पाण्डवों के मन्त्रदाता बने रहे और स्थान-स्थान पर इनकी सेना को प्रोत्साहित करते रहे। इस युद्ध का सविस्तार वर्णन करना इस पुस्तक की सीमा के बाहर है, अतः हम केवल उन घटनाओं का ही उल्लेख करेंगे जिनसे कृष्णचन्द्र का संबंध है या जिससे कृष्ण के चरित्र पर कुछ प्रकाश पड़ता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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