योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 113

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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सत्ताईसवाँ अध्याय
महाभारत का युद्ध


सारांश यह कि दोनों ओर से लड़ाई की ठन गई। दोनों ओर की सेना सुसज्जित होकर सामने आई। सेनाओं को स्थान-स्थान पर बाँटकर सेनापति नियत कर दिये गए। कौरवों की ओर से सेना का आधिपत्य भीष्म पितामह को दिया गया और दूसरी ओर से धृष्टद्युम्न को। शंख, घड़ियाल आदि बाजों की ध्वनि से आकाश-पाताल एक हो गये। घोड़ों की टाप से पृथ्वी कम्पायमान हो गई। सेनापतियों की प्रभावशाली वक्तृता से सैनिकों का रक्त उबल रहा था। इस मैदान में जो कुछ था वह उत्तेजनापूर्ण था। भाई भाई से, दादा पोते से, गुरु शिष्य से लड़ने के लिए तैयार थे।

सारे स्नेह का त्याग करके आन की आन में भाई-भाई के खून का प्यासा दीख पड़ने लगा। अहा! क्या दृश्य था। आर्यावर्त जैसे महान देश की सारी युयुत्सु जातियाँ अपने अस्त्र और शस्त्रों से सुसज्जित होकर लड़ने को तैयार थीं।

सत्य है, किसी देश की समृद्धि को देखना हो तो वहाँ की सेना को देखें। अपने शत्रु के सामने आने के लिए प्रत्येक जाति अपनी पूरी शक्ति को प्रकट करने का यत्न करती है।

महाभारत की लड़ाई के आरम्भ के पहले कुरुक्षेत्र का मैदान एक प्रदर्शनी के समान था जिसमें भारतवर्ष का पूरा वैभव दिखाई देता था। विचित्र रंगमंच था। परदे विचित्र थे। बाजे गाने विचित्र थे और साथ ही अभिनेता भी अपने-अपने गुण में पंडित थे, जो फिर इसके बाद आर्यावर्त के मंच पर नहीं आये। इस रंगस्थली में अर्जुन ने कृष्ण को आज्ञा दी कि मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले जाकर खड़ा करो जिससे दोनों दलों पर मैं अच्छी तरह से नजर डाल सकूँ। कृष्ण ने तत्काल आज्ञा का पालन किया और अर्जुन तथा कृष्ण दोनों सेनाओं के बीच जा खड़े हुए। ज्योंही अर्जुन की दृष्टि कुरुसेना पर पड़ी और उसने भीष्म और द्रोण को देखा तो उसका दिल हिल गया। इस समय वैराग्य के भाव उसके दिल में उठने लगे। यहाँ तक कि अर्जुन विवश होकर कह उठा कि सांसारिक सुख व राजपाट के लिए मुझे भीष्म और द्रोण जैसे सत्पुरुष और धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध करना स्वीकार नहीं, मैं तो नहीं लड़ता। कृष्ण ने जब यह सुना तो आश्चर्यचकित होकर रह गये।

उन्होंने सबसे पहले अर्जुन को क्षत्रियत्व की अपील की और तिरस्कार से काम निकालना चाहा। उसने दोनों सेनाओं की ओर संकेत करके पूछा, "हे अर्जुन, आर्यो में तो ऐसी कायरता नहीं होती, जैसी इस समय तू दिखा रहा है। देख, दोनों दल लड़ने को कमर बाँधे खड़े हैं। तू इस समय यदि इस मिथ्या वैराग्य में फँसकर मैदान छोड़कर भाग खड़ा होगा तो लोग क्या कहेंगे? तेरे शत्रु तेरी वीरता में संदेह करके तेरी निन्दा करते फिरेंगे। क्षत्रिय का धर्म लड़ना है।"

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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