योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
सत्ताईसवाँ अध्याय
महाभारत का युद्ध
सारे स्नेह का त्याग करके आन की आन में भाई-भाई के खून का प्यासा दीख पड़ने लगा। अहा! क्या दृश्य था। आर्यावर्त जैसे महान देश की सारी युयुत्सु जातियाँ अपने अस्त्र और शस्त्रों से सुसज्जित होकर लड़ने को तैयार थीं। सत्य है, किसी देश की समृद्धि को देखना हो तो वहाँ की सेना को देखें। अपने शत्रु के सामने आने के लिए प्रत्येक जाति अपनी पूरी शक्ति को प्रकट करने का यत्न करती है। महाभारत की लड़ाई के आरम्भ के पहले कुरुक्षेत्र का मैदान एक प्रदर्शनी के समान था जिसमें भारतवर्ष का पूरा वैभव दिखाई देता था। विचित्र रंगमंच था। परदे विचित्र थे। बाजे गाने विचित्र थे और साथ ही अभिनेता भी अपने-अपने गुण में पंडित थे, जो फिर इसके बाद आर्यावर्त के मंच पर नहीं आये। इस रंगस्थली में अर्जुन ने कृष्ण को आज्ञा दी कि मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले जाकर खड़ा करो जिससे दोनों दलों पर मैं अच्छी तरह से नजर डाल सकूँ। कृष्ण ने तत्काल आज्ञा का पालन किया और अर्जुन तथा कृष्ण दोनों सेनाओं के बीच जा खड़े हुए। ज्योंही अर्जुन की दृष्टि कुरुसेना पर पड़ी और उसने भीष्म और द्रोण को देखा तो उसका दिल हिल गया। इस समय वैराग्य के भाव उसके दिल में उठने लगे। यहाँ तक कि अर्जुन विवश होकर कह उठा कि सांसारिक सुख व राजपाट के लिए मुझे भीष्म और द्रोण जैसे सत्पुरुष और धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध करना स्वीकार नहीं, मैं तो नहीं लड़ता। कृष्ण ने जब यह सुना तो आश्चर्यचकित होकर रह गये। उन्होंने सबसे पहले अर्जुन को क्षत्रियत्व की अपील की और तिरस्कार से काम निकालना चाहा। उसने दोनों सेनाओं की ओर संकेत करके पूछा, "हे अर्जुन, आर्यो में तो ऐसी कायरता नहीं होती, जैसी इस समय तू दिखा रहा है। देख, दोनों दल लड़ने को कमर बाँधे खड़े हैं। तू इस समय यदि इस मिथ्या वैराग्य में फँसकर मैदान छोड़कर भाग खड़ा होगा तो लोग क्या कहेंगे? तेरे शत्रु तेरी वीरता में संदेह करके तेरी निन्दा करते फिरेंगे। क्षत्रिय का धर्म लड़ना है।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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