योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
सम्पादकीय
परवर्ती काल में कृष्ण के उदात्त तथा महनीय आर्योचित चरित्र को समझने में चाहे लोगों के अनेक भूलें ही क्यों न की हों, उनके समकालीन तथा आत्मीय जनों ने उस महाप्राण व्यक्तित्व का सही मूल्यांकन किया था। सम्राट युधिष्ठिर उनका सम्मान करते थे तथा उनके परामर्श को सर्वोपरि महत्त्व देते थे। पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण तथा कृपाचार्य जैसे प्रतिपक्ष के लोग भी उन्हें भरपूर आदर देते थे। महाभारत के प्रणेता भगवान कृष्ण द्वैपायन व्यास ने तो उन्हें धर्म का पर्याय बताते हुए घोषणा की थी-
जहाँ कृष्ण हैं वहीं धर्म है और जहाँ धर्म है वहाँ जय तो निश्चित ही है। भगवद्गीता के वक्ता महामति संजय ने जो भविष्यवाणी की थी, उसे समसामयिक लोगों की सहमति प्राप्त थी, क्योंकि उसने सत्य ही कहा था-
आर्य जीवनकला का सर्वागीण विकास हमें कृष्ण के पावन चरित्र में दिखाई देता है। जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। सर्वत्र उनकी अदभुत मेधा तथा सर्वग्रासिनी प्रतिभा के दर्शन होते हैं। वे एक ओर महान राजनीतिज्ञ, क्रान्तिविधाता, धर्म पर आधारित नवीन साम्राज्य के स्रष्टा राष्ट्रपुरुष के रूप में दिखाई पड़ते हैं तो दूसरी ओर धर्म, अध्यात्म, दर्शन और नीति के सूक्ष्म चिन्तक, विवेचक तथा प्रचारक भी हैं। उनके समय में भारत देश सुदूर गांधार से लेकर दक्षिण की सह्याद्रि पर्वतमाला तक क्षत्रियों के छोटे-छोटे, स्वतंत्र किन्तु निरंकुश राज्यों में विभक्त हो चुका था। उन्हें एकता के सूत्र में पिरोकर समग्र भारतखण्ड को एक सुदृढ़ राजनीतिक इकाई के रूप में पिरोने वाला कोई नहीं था। एक चक्रवर्ती सम्राट के न होने से विभिन्न माण्डलिक राजा नितान्त स्वेच्छाचारी तथा प्रजापीड़क हो गये थे। मथुरा का कंस, मगध का जरासंध, चेदिदेश का शिशुपाल तथा हस्तिनापुर के दुर्योधन प्रमुख कौरव सभी दुष्ट, विलासी, ऐश्वर्य-मदिरा में प्रमत्त तथा दुराचारी थे। कृष्ण ने अपनी नीतिमत्ता, कूटनीतिक चातुर्य तथा अपूर्व सूझबूझ से इन सभी अनाचारियों का मूलोच्छेद किया तथा धर्मराज कहलाने वाले आजतशत्रु युधिष्ठिर को आर्यावर्त के सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर आर्यो के अखण्ड, चक्रवर्ती, सार्वभौम साम्राज्य को साकार किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवद्गीता 18/78
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