योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 11

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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सम्पादकीय


पाँच हजार वर्ष पूर्व आज की ही तरह विश्व के क्षितिज पर भादों की अँधेरी तमिस्रा अपनी निगूढ़ कालिमा के साथ छा गई थी। तब भी भारत में जन था, धन था, शक्ति थी, साहस था, पर एक अकर्मण्यता भी थी जिससे सब कुछ अभिभूत, मोहाच्छन्न तथा तमतावृत्त हो रहा था। महापुरुष तो इस वसुंधरा पर अनेक हुए हैं किन्तु लोक, नीति और अध्यात्म को समन्वय के सूत्र में गूँथ कर राजनीति, समाज नीति तथा दर्शन के क्षेत्र में क्रान्ति का शंखनाद करने वाले योगेश्वर कृष्ण ही थे।

परवर्ती काल में कृष्ण के उदात्त तथा महनीय आर्योचित चरित्र को समझने में चाहे लोगों के अनेक भूलें ही क्यों न की हों, उनके समकालीन तथा आत्मीय जनों ने उस महाप्राण व्यक्तित्व का सही मूल्यांकन किया था। सम्राट युधिष्ठिर उनका सम्मान करते थे तथा उनके परामर्श को सर्वोपरि महत्त्व देते थे। पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण तथा कृपाचार्य जैसे प्रतिपक्ष के लोग भी उन्हें भरपूर आदर देते थे। महाभारत के प्रणेता भगवान कृष्ण द्वैपायन व्यास ने तो उन्हें धर्म का पर्याय बताते हुए घोषणा की थी-

यतो कृष्णस्ततो धर्मः यतो धर्मस्ततो जय।

जहाँ कृष्ण हैं वहीं धर्म है और जहाँ धर्म है वहाँ जय तो निश्चित ही है।

भगवद्गीता के वक्ता महामति संजय ने जो भविष्यवाणी की थी, उसे समसामयिक लोगों की सहमति प्राप्त थी, क्योंकि उसने सत्य ही कहा था-

यत्र योगेश्वरो कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्घरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्घुवा नीतिर्मतिर्मम।।[1]

आर्य जीवनकला का सर्वागीण विकास हमें कृष्ण के पावन चरित्र में दिखाई देता है। जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। सर्वत्र उनकी अदभुत मेधा तथा सर्वग्रासिनी प्रतिभा के दर्शन होते हैं। वे एक ओर महान राजनीतिज्ञ, क्रान्तिविधाता, धर्म पर आधारित नवीन साम्राज्य के स्रष्टा राष्ट्रपुरुष के रूप में दिखाई पड़ते हैं तो दूसरी ओर धर्म, अध्यात्म, दर्शन और नीति के सूक्ष्म चिन्तक, विवेचक तथा प्रचारक भी हैं। उनके समय में भारत देश सुदूर गांधार से लेकर दक्षिण की सह्याद्रि पर्वतमाला तक क्षत्रियों के छोटे-छोटे, स्वतंत्र किन्तु निरंकुश राज्यों में विभक्त हो चुका था। उन्हें एकता के सूत्र में पिरोकर समग्र भारतखण्ड को एक सुदृढ़ राजनीतिक इकाई के रूप में पिरोने वाला कोई नहीं था। एक चक्रवर्ती सम्राट के न होने से विभिन्न माण्डलिक राजा नितान्त स्वेच्छाचारी तथा प्रजापीड़क हो गये थे। मथुरा का कंस, मगध का जरासंध, चेदिदेश का शिशुपाल तथा हस्तिनापुर के दुर्योधन प्रमुख कौरव सभी दुष्ट, विलासी, ऐश्वर्य-मदिरा में प्रमत्त तथा दुराचारी थे। कृष्ण ने अपनी नीतिमत्ता, कूटनीतिक चातुर्य तथा अपूर्व सूझबूझ से इन सभी अनाचारियों का मूलोच्छेद किया तथा धर्मराज कहलाने वाले आजतशत्रु युधिष्ठिर को आर्यावर्त के सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर आर्यो के अखण्ड, चक्रवर्ती, सार्वभौम साम्राज्य को साकार किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवद्गीता 18/78

संबंधित लेख

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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