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चौबीसवाँ अध्याय
विदुर और कृष्ण का वार्तालाप
अन्त में दुर्योधन को अपने समीप बुलवाया और उसे इस प्रकार समझाने लगी, "हे पुत्र! तुझे अपने पिता, पितामह, गुरु और बड़ों की आज्ञा का पालन करना चाहिए, यही तेरा परम धर्म है। मेरी भी उत्कट इच्छा है कि आपस में सन्धि हो जाये। यदि तू हम सबकी इच्छा पूर्ण करे तो हम सब तुझसे बड़े प्रसन्न होंगे। अकेला कोई भी पुरुष राज्य नहीं कर सकता और विशेषतः वह पुरुष जिसकी इन्द्रियाँ उसके वश में न हों, कभी अधिक काल तक देश का शासन नहीं कर सकता। अनुशासन वही पुरुष कर सकता है जो अपनी इन्द्रियों को अपने वशीभूत रख बुद्धिमानी से बर्ताव करे। कामी या क्रोधी राज्य के उपयुक्त नहीं होता, इसलिए पहले अपनी इन्द्रियों पर अधिकार पाना चाहिए। फिर संसार का राज्य मिल सकता है। मनुष्य पर अनुशासन करना बड़ा कठिन है। संभव है कि कभी कोई दुष्टात्मा शक्तिमान हो जाये, और उसे राज्य भी मिल जाये, पर उससे उसका निर्वाह नहीं हो सकता। जो प्रतापी राजा बनना चाहता हो उसका प्रथम धर्म है कि वह अपनी इन्द्रियों को अपने अधीन करे। इससे बुद्धि की वृद्धि होती है, जैसे ईंधन से आग की। स्वाधीन इन्द्रियाँ स्वाधीन घोड़ों के तुल्य हैं जो अपने सवार को कभी-न-कभी गिरा देता है और घायल करता है। जो पुरुष अपनी इन्द्रियों को अपने अधीन किये बिना अपने मित्रों में श्रेष्ठता पाने का यत्न करता है उसका यत्न वृथा जाता है। अपने मित्रों में सम्मान पाए बिना जो अपने शत्रु पर विजय पाने की इच्छा रखता है उसकी इच्छा कभी पूर्ण नहीं होती। अतः पहला यत्न यह होना चाहिए कि मनुष्य अपनी इन्द्रियों पर प्रभुत्व प्राप्त करे, क्योंकि ऐसे ही पुरुष को सदा सुख प्राप्त होता है। काम और क्रोध को बुद्धिमानी से वश में करना चाहिए। जिस पुरुष ने यावत सांसारिक इच्छाओं का परित्याग कर दिया है पर काम और क्रोध उसके शरीर में बने हैं वह कभी स्वर्ग प्राप्त नहीं कर सकता। वही क्षत्रिय चक्रवर्ती राज्य को प्राप्त कर सकता है, जिसने काम, क्रोध, लोभ और अभिमान को जीत लिया है।"
इस प्रकार उपदेश करते हुए गान्धारी ने दुर्योधन को सब ऊँचा-नीचा बताया। कभी उसको अर्जुन और कृष्ण की वीरता का भय दिखाया और कभी भीष्म, धृतराष्ट्र और द्रोणादि के अप्रसन्न हो जाने का भय दिखाया। सारांश यह कि प्रत्येक प्रकार से उसे समझाया, पर उसने कुछ न माना। अन्त में वह उठ खड़ा हुआ और दरबार से चला गया।
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