योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 108

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

Prev.png

चौबीसवाँ अध्याय
विदुर और कृष्ण का वार्तालाप


अन्त में दुर्योधन को अपने समीप बुलवाया और उसे इस प्रकार समझाने लगी, "हे पुत्र! तुझे अपने पिता, पितामह, गुरु और बड़ों की आज्ञा का पालन करना चाहिए, यही तेरा परम धर्म है। मेरी भी उत्कट इच्छा है कि आपस में सन्धि हो जाये। यदि तू हम सबकी इच्छा पूर्ण करे तो हम सब तुझसे बड़े प्रसन्न होंगे। अकेला कोई भी पुरुष राज्य नहीं कर सकता और विशेषतः वह पुरुष जिसकी इन्द्रियाँ उसके वश में न हों, कभी अधिक काल तक देश का शासन नहीं कर सकता। अनुशासन वही पुरुष कर सकता है जो अपनी इन्द्रियों को अपने वशीभूत रख बुद्धिमानी से बर्ताव करे। कामी या क्रोधी राज्य के उपयुक्त नहीं होता, इसलिए पहले अपनी इन्द्रियों पर अधिकार पाना चाहिए। फिर संसार का राज्य मिल सकता है। मनुष्य पर अनुशासन करना बड़ा कठिन है। संभव है कि कभी कोई दुष्टात्मा शक्तिमान हो जाये, और उसे राज्य भी मिल जाये, पर उससे उसका निर्वाह नहीं हो सकता। जो प्रतापी राजा बनना चाहता हो उसका प्रथम धर्म है कि वह अपनी इन्द्रियों को अपने अधीन करे। इससे बुद्धि की वृद्धि होती है, जैसे ईंधन से आग की। स्वाधीन इन्द्रियाँ स्वाधीन घोड़ों के तुल्य हैं जो अपने सवार को कभी-न-कभी गिरा देता है और घायल करता है। जो पुरुष अपनी इन्द्रियों को अपने अधीन किये बिना अपने मित्रों में श्रेष्ठता पाने का यत्न करता है उसका यत्न वृथा जाता है। अपने मित्रों में सम्मान पाए बिना जो अपने शत्रु पर विजय पाने की इच्छा रखता है उसकी इच्छा कभी पूर्ण नहीं होती। अतः पहला यत्न यह होना चाहिए कि मनुष्य अपनी इन्द्रियों पर प्रभुत्व प्राप्त करे, क्योंकि ऐसे ही पुरुष को सदा सुख प्राप्त होता है। काम और क्रोध को बुद्धिमानी से वश में करना चाहिए। जिस पुरुष ने यावत सांसारिक इच्छाओं का परित्याग कर दिया है पर काम और क्रोध उसके शरीर में बने हैं वह कभी स्वर्ग प्राप्त नहीं कर सकता। वही क्षत्रिय चक्रवर्ती राज्य को प्राप्त कर सकता है, जिसने काम, क्रोध, लोभ और अभिमान को जीत लिया है।"

इस प्रकार उपदेश करते हुए गान्धारी ने दुर्योधन को सब ऊँचा-नीचा बताया। कभी उसको अर्जुन और कृष्ण की वीरता का भय दिखाया और कभी भीष्म, धृतराष्ट्र और द्रोणादि के अप्रसन्न हो जाने का भय दिखाया। सारांश यह कि प्रत्येक प्रकार से उसे समझाया, पर उसने कुछ न माना। अन्त में वह उठ खड़ा हुआ और दरबार से चला गया।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः