योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
बाईसवाँ अध्याय
कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म
इतना कहकर द्रौपदी रोने लगी मानो उसके नेत्रों से मोतियों की धारा बह निकली। द्रौपदी की यह दशा देखकर सारी सेना में जोश आ गया। चारों ओर तलवारें म्यान से बाहर निकल आई। अन्ततः कृष्ण ने द्रौपदी को संबोधन कर कहा, "हे कृष्णे, तू धीरज धर। यदि दुर्योधन ने मेरी बात न मानी तो वह पछताएगा। उसकी रानियाँ विलाप करेंगी! तेरे पति विजय पावेंगे और तुझे फिर राजसिंहासन पर बिठायेंगे।" इतना कहकर कृष्ण वहाँ से विदा हुए। वे जानते थे कि दुर्योधन दुष्ट है, इसलिए उन्होंने अपनी रक्षा के लिए दो हजार सिपाही साथ लिए और हस्तिनापुर की ओर चले। धृतराष्ट्र को जब समाचार मिला कि कृष्ण आ रहे हैं तो उसने उनके आराम का पूरा प्रबन्ध कर दिया और राजधानी में स्वागत की बड़ी तैयारियाँ कराने लगा, परन्तु कृष्ण ने धृतराष्ट्र के प्रबन्ध से कुछ फायदा नहीं उठाया। वे हस्तिनापुर पहुँच गये। यहाँ कौरवों की ओर से उनका अच्छा स्वागत किया गया। जब वे महल में आए तब सब छोटे-बड़ों ने उनका पूरा सत्कार किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज