या जुवती के गोरस कौ हरि, इक दिन बहुत अरे।
ऊधौ वे बातै क्यौ बिसरति, छाँड़ि न हठहिं परे।।
ता दिन कौ देखी यह अचल, ऐचत ओप भरे।
आपु सिखाइ ग्वाल सबहिनि कौ, न्यारे रहे खरे।।
सो मूरति नैननि मैं लगि रही, अँग अँग चपल परे।
‘सूर’ स्याम देखै सचु पइयै, राखि संदेस धरे।।3586।।