या घर मैं कोउ है कै नाहीं।
बार-बार बूझति बृच्छनि कौं, गोरस लेहु कि जाहीं।।
आपुहिं कहति लेति नाहीं दधि, और द्रुमनि तर जाति।
मिलतिं परसर बिबस देखि तिहिं, कहति कहा इतराति।।
ताकौं कहति, आपु सुधि नाहीं, सो पुनि जानति नाहीं।
सूर स्याम रस भरी गोपिका बन मैं यौं बितताहीं।।1622।।