चौपाई
यह ब्रत हिय धरि देवी पूजो। है कछु मन अभिलाष न दूजी।।
दीजै नंद-सुवन पति मेरैं। जौ पै होइ अनुग्रह तेरैं।।
छंद
तब करि अनुग्रह बर दियौ, जब बरष जुवतिनि तप कियौ।
त्रैलोक्यु-भूषन पुरुष सुंदर, रुप-गुन नाहिंन बियौ।।
इत उबटि खोरि सिंगारि सखियनि, कुँवरि चौरी आनियौ।।
जा हित कियौ ब्रत नेम-संजम, सो धरि बिधि बानियौ।।
चौपाई
मोर मुकुट रचि मौर बनायौ। माथे पर धरि हरि बर आयौ।।
तनु स्यामल पट पीत दुकूले। देखत घन-दामिनि मन भूले।।
छंद
बर दामिनी-धन कोटि वारौं, जब निहारौं वह छबी।
कुंडल विराजत गंड मंडल, नहीं सोभा ससि रबी।।
अब और कौन समान त्रिभुवन, सकल गुन जिहिं माहिंयाँ।
मन मोर नाचत संग डोलत, मुकुट की परछाहिंयाँ।।
चौपाई
गोपी जन सब नेवते आईं। मुरली धुनि तैं पठइ बुलाईं।।
बहु बिधि आनँद मंगल गाए। नव फुलनि के मंडप छाए।।