यह बात हमारे कौन सुनै।
जिन चाह्यौ हरि रूप सुरति करि, भूलि अँगारनि को न चुनै।।
ह्याँ सेवनि को ठौर न देखति, तातै सुनि मन मैं न गुनै।
केमुक बिरह बयारि पैन की, बैठे ठाढ़े को धुनै।।
तब उन भाँतिनि लाड़ लड़ाये, अब बूझियै न यह उनै।
बालि छाँड़ि कै ‘सूर’ हमारै, अब नरवाई को लुनै।।3740।।