यह पट पीत कहाँ तै पायौ।
इतनक बोल गुपुत माधौ कौ राधे तै तिहुँ लोक जनायौ।।
एक समय अंतर बन खेलत बहुत जतन करि मही उठायौ।
नाही याकौ मोल न गाहक घर उपज्यौ नहिं मोल मँगायौ।।
सुमिरत ध्यान सबै उर अतर त्रिभुवन रूप भलौ बर पायौ।
ये सब भेद चतुर सोइ जानै 'सूरदास' प्रभु कहि समुझायौ।। 36 ।।