यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 382

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

अष्टम अध्याय

श्रीभगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्म परंम स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंचितः।।3।।

‘अक्षरं ब्रह्म परमम्’-जो अक्षय है, जिसका क्षय नहीं होता, वही परम ब्रह्म है। ‘स्वभावः अध्यात्मम् उच्यते’-स्वयं में स्थिर भाव ही अध्यात्म अर्थात् आत्मा का आधिपत्य है। इससे पहले सभी माया के आधिपत्य में रहते हैं; किन्तु जब ‘स्व’-भाव अर्थात् स्वरूप में स्थिरभाव (स्वयं में स्थिरभाव) मिल जाता है तो आत्मा का ही आधिपत्य उसमें प्रवाहित हो जाता है। यही अध्यात्म है, अध्यात्म की पराकाष्ठा ‘भूतभावोद्भवकरः’-भूतों के वे भाव जो कुछ-न-कुछ उद्भव करते हैं अर्थात् प्राणियों के वे संकल्प जो भले अथवा बुरे संस्कारों की संरचना करते हैं उनका विसर्ग अर्थात् विसर्जन, उनका मिट जाना ही कर्म की पराकाष्ठा है। यही सम्पूर्ण कर्म है, जिसके लिये योगेश्वर ने कहा-‘वह सम्पूर्ण कर्म को जानता है।’ वहाँ कर्म पूर्ण है, आगे आवश्यकता नहीं है (नियत कर्म) इस अवस्था में जबकि भूतों के वे भाव जो कुछ-न-कुछ रचते हैं, भले अथवा बुरे संस्कार-संग्रह करते हैं, बनाते हैं, वे जब सर्वथा शान्त हो जायँ, यहीं कर्म की सम्पूर्णता है। इसके आगे कर्म करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। अतः कर्म कोई ऐसी वस्तु है, जो भूतों के सम्पूर्ण संकल्पों को, जिनसे कुछ-न-कुछ संस्कार बनते हैं उनका शमन कर देती है। कर्म का अर्थ है (आराधना) चिन्तन, जो यज्ञ में है।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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