विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दअष्टम अध्यायश्रीभगवानुवाच ‘अक्षरं ब्रह्म परमम्’-जो अक्षय है, जिसका क्षय नहीं होता, वही परम ब्रह्म है। ‘स्वभावः अध्यात्मम् उच्यते’-स्वयं में स्थिर भाव ही अध्यात्म अर्थात् आत्मा का आधिपत्य है। इससे पहले सभी माया के आधिपत्य में रहते हैं; किन्तु जब ‘स्व’-भाव अर्थात् स्वरूप में स्थिरभाव (स्वयं में स्थिरभाव) मिल जाता है तो आत्मा का ही आधिपत्य उसमें प्रवाहित हो जाता है। यही अध्यात्म है, अध्यात्म की पराकाष्ठा ‘भूतभावोद्भवकरः’-भूतों के वे भाव जो कुछ-न-कुछ उद्भव करते हैं अर्थात् प्राणियों के वे संकल्प जो भले अथवा बुरे संस्कारों की संरचना करते हैं उनका विसर्ग अर्थात् विसर्जन, उनका मिट जाना ही कर्म की पराकाष्ठा है। यही सम्पूर्ण कर्म है, जिसके लिये योगेश्वर ने कहा-‘वह सम्पूर्ण कर्म को जानता है।’ वहाँ कर्म पूर्ण है, आगे आवश्यकता नहीं है (नियत कर्म) इस अवस्था में जबकि भूतों के वे भाव जो कुछ-न-कुछ रचते हैं, भले अथवा बुरे संस्कार-संग्रह करते हैं, बनाते हैं, वे जब सर्वथा शान्त हो जायँ, यहीं कर्म की सम्पूर्णता है। इसके आगे कर्म करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। अतः कर्म कोई ऐसी वस्तु है, जो भूतों के सम्पूर्ण संकल्पों को, जिनसे कुछ-न-कुछ संस्कार बनते हैं उनका शमन कर देती है। कर्म का अर्थ है (आराधना) चिन्तन, जो यज्ञ में है।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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