यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
सप्तम अध्याय
मेरे भक्त चार प्रकार के हैं-अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी। चिन्तन करते-अनेक जन्मों के अन्तिम जन्म में प्राप्तिवाला ज्ञानी मेरा ही स्वरूप है अर्थात् अनेक जन्मों से चिन्तन करके उस भगवत्स्वरूप को प्राप्त किया जाता है। राग-द्वेष के मोह से आक्रान्त मनुष्य मुझे कदापि नहीं जान सकते; किन्तु-राग द्वेष के मोह से रहित होकर जो नियतकर्म (जिसे संक्षेप में आराधना कह सकते हैं) का चिन्तन करते हुए जरा-मरण से छूटने के लिये प्रयत्नशील हैं, वे पुरुष सम्पूर्ण रूप से मुझे जान लेते हैं। वे सम्पूर्ण ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्मक को, सम्पूर्ण अधिभूत को, सम्पूर्ण अधिदैव को, सम्पूर्ण कर्म को और सम्पूर्ण यज्ञ के सहित मुझे जानते हैं। वे मुझमें प्रवेश करते हैं और अन्तकाल में भी मुझको ही जानते हैं अर्थात् फिर कभी वे विस्मृत नहीं होते।
इस अध्याय में परमात्मा की समग्र जानकारी का विवेचन है, अतः
ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्यविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसम्वादे ‘समग्रबोधः’ नाम सप्तमोऽध्यायः।।7।।
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद् एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में ‘समग्र जानकारी’ नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण होता है।
इति श्रीमत्परमहंसपरमानन्दस्य शिष्य स्वामीअड़गड़ानन्दकृते श्रीमद्भगवद्गीतायाः ‘समग्रबोधः’ नाम सप्तमोऽध्यायः।।7।।
इस प्रकार श्रीमत् परमहंस परमानन्दजी के शिष्य स्वामी अड़गड़ानन्दकृत ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के भाष्य ‘यथार्थ गीता’ में ‘समग्र जानकारी’ नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण होता है।
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