यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 366

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

सप्तम अध्याय

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।19।।

अभ्यास करते-करते बहुत जन्मों के अन्त के जन्म में, प्राप्तिवाले जन्म में साक्षात्कार को प्राप्त हुआ ज्ञानी ‘सब कुछ वासुदेव ही है’-इस प्रकार मेरे को भजता है। वह महात्मा अतिदुर्लभ है। वह किसी वासुदेव की प्रतिमा नहीं गढ़ वाता बल्कि अपने भीतर ही उस परमदेव का वास पाता है। उसी ज्ञानी महात्मा को श्रीकृष्ण तत्त्वदर्शी भी कहते हैं। इन्हीं महापुरुषों से बाहर समाज में कल्याण सम्भव है। इस प्रकार प्रत्यक्ष तत्त्वदर्शी महापुरुष श्रीकृष्ण के शब्दों में अतिदुर्लभ हैं।

जब श्रेय और प्रेय (मुक्ति और भोग) दोनों ही भगवान से मिलते हैं, तब तो सभी को एकमात्र भगवान का भजन करना चाहिये, फिर भी लोग उन्हें नहीं भजते। क्यों? श्रीकृष्ण के ही शब्दों में-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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