विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दसप्तम अध्याय
सूत जी ने बताया कि मार्कण्डेय जी की प्रार्थना से प्रसन्न होकर नर-नारायण ने उन्हें दर्शन दिया। मार्कण्डेय जी ने कहा कि मैं आपकी वह माया देखना चाहता हूँ, जिससे प्रेरित होकर यह आत्मा अनन्त योनियों में भ्रमण करता है। भगवान ने स्वीकार किया। एक दिन की जब मुनि अपने आश्रम में भगवान के चिन्तन में तन्मय हो रहे थे, तब उन्हें दिखायी पड़ा कि चारों ओर से समुद्र उमड़कर उनके ऊपर आ रहा है। उसमें ‘मगर’ छलाँगे लगा रहे थे। उनकी चपेट में ऋषि मार्कण्डेय भी आ रहे थे। वे इधर-उधर बचने के लिये भाग रहे थे। आकाश, सूर्य, पृथ्वी, चन्द्रमा, स्वर्ग, ज्योतिर्मण्डल सभी उस समुद्र में डूब गये। इतने में मार्कण्डेय जी को बरगद का पेड़ और उसके पत्ते पर एक शिशु दिखायी दिया। श्वास के सार्थज्ञ मार्कण्डेय जी भी उस शिशु के उदर में चले गये और अपना आश्रम, सूर्यमण्डल सहित सृष्टि को जीवि पाया और पुनः श्वास के साथ उस शिशु के उदर से वे बाहर आ गये। नेत्र खुलने पर मार्कण्डेय जी ने अपने को उसी आश्रम में अपने ही आसन पर पाया।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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