विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दषष्ठम अध्यायतपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः। तपस्वियों से योगी श्रेष्ठ है, ज्ञानियों से भी श्रेष्ठ माना गया है, कर्मियों से भी योगी श्रेष्ठ है; इसलिये अर्जुन! तू योगी बन। तपस्वी-तपस्वी मनसहित इन्द्रियों को उस योग में ढालने के लिये तपाता है, अभी योग उसमें ढला नहीं। कर्मी-कर्मी इस नियत कर्म को जानकर उसमें प्रवृत्त होता है। न तो वह अपनी शक्ति समझकर ही प्रवृत्त है और न वह समर्पण करके ही प्रवृत्त है, करता भर है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज