विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दषष्ठम अध्यायजो योग के संस्कारों से युक्त नहीं है, उन्हें महापुरुष नहीं अपनाते। ‘पूज्य महाराज जी’ यदि साधु बनाते तो हजारों विरक्त उनके शिष्य होते। किन्तु उन्होंने किसी को किराया-भाड़ा देकर, किसी के घर सूचना भेजकर, पत्र भेजकर समझा-बुझाकर सबको उनके घर लौटा दिया। बहुत लोग हठ करने लगे तो उन्हें अपशकुन हो। भीतर से मना हो कि इसमें साधु बनने का एक भी लक्षण नहीं है। इसे रखने में भलाई नहीं है, यह पान नहीं होगा। निराश होकर दो-एक ने पहाड़ से गिरकर अपनी जान भी दे दी; किन्तु महाराज जी ने उन्हें अपने यहाँ नहीं रखा। बाद में पता चलने पर बोले-“जानत रहेउँ कि बड़ा विकल है लेकिन ई सोचते कि सचहूँ के मरि जाई तो रखी लेते। एक ठो पतितै रहत, अउर का होत।” ममत्व उनमें भी विकट था, फिर भी नहीं रखा। छः-सात को, जिनके लिये आदेश हुआ कि-“आज एक योगभ्रष्ट आ रहा है, जन्म-जन्म से भटका हुआ चला आ रहा है, इस नाम और इस रूप का कोई आने वाला है, उसे रखो, ब्रह्मविद्या का उपदेश करो, उसे आगे बढ़ाओ।” केवल उन्हीं को रखा।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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