यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 32

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

प्रथम अध्याय

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।।44।।

हे जनार्दन! नष्ट हुए कुलधर्म वाले मनुष्यों का अनन्तकाल तक नरक में वास होता है, ऐसा हमने सुना है। केवल कुलधर्म ही नहीं नष्ट होता, बल्कि शाश्वत-सनातन धर्म नष्ट हो जाता है। जब धर्म ही नष्ट हो गया, तब ऐसे पुरुष का अनन्तकाल तक नरक में निवास होता है, ऐसा हमने सुना है। देखा नहीं, सुना है।

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।45।।

अहो! शोक है कि हमलोग बुद्धिमान् होकर भी महान् पाप करने को तैयार हुए हैं। राज्य और सुख के लोभ से अपने कुल को मारने के लिये उद्यत हैं।

अभी अर्जुन अपने को कम ज्ञाता नहीं समझता। आरम्भ में प्रत्येक साधक इसी प्रकार बोलता है। महात्मा बुद्ध का कथन है कि मनुष्य जब अधूरी जानकारी रखता है तो अपने को महान् ज्ञानी समझता है और जब आधे से आधे की जानकारी हासिल करने लगता है तो अपने को महान् मूर्ख समझता है। ठीक इसी प्रकार अर्जुन भी अपने को ज्ञानी ही समझता है। वह श्रीकृष्ण को ही समझाता है कि इस पाप से परमकल्याण हो-ऐसी बात भी नहीं, केवल राज्य और सुख के लोभ में पड़कर हम लोग कुलनाश करने को उद्यत हुए हैं-महान् भूल कर रहे हैं। हम भी भूल कर रहे हैं-ऐसी बात नहीं, आप भी भूल कर रहे हैं। एक धक्का श्रीकृष्ण को भी दिया। अन्त में अर्जुन अपना निर्णय देता है-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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