विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दषष्ठम अध्याययत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया। जिस अवस्था में योग के अभ्यास से निरुद्ध हुआ चित्त भी उपराम हो जाता है, विलीन हो जाता है, मिट जाता है, उस अवस्था में ‘आत्मना’-अपने आत्मा के द्वारा ‘आत्मानम्’- परमात्मा को देखता हुआ ‘आत्मनि एव’-अपने आत्मा में ही सन्तुष्ट होता है। देखता तो परमात्मा को है लेकिन सन्तुष्ट अपने ही आत्मा से होता है। क्योंकि प्राप्तिकाल में तो परमात्मा का साक्षात्कार होता है, किन्तु दूसरे ही क्षण वह अपने ही आत्मा को उन शाश्वत ईश्वरी विभूतियों से ओतप्रोत पाता है। ब्रह्म अजर, अमर, शाश्वत, अव्यक्त और अमृतस्वरूप है, तो इधर आत्मा भी अजर, अमर, शाश्वत, अव्यक्त और अमृतस्वरूप है। है तो, किन्तु अचिन्त्य भी है। जब तक चित्त और चित्त की लहर है, तब तक वह आपके उपभोग के लिये नहीं है। चित्त का निरोध और निरुद्ध चित्त के विलयकाल में परमात्मा का साक्षात्कार होता है और दर्शन के ठीक दूसरे क्षण उन्हीं ईश्वरीय गुणधर्मों से युक्त अपने ही आत्मा को पाता है, इसलिये वह अपने ही आत्मा में सन्तुष्ट होता है। यही उसका स्वरूप है। यही पराकाष्ठा है। इसी का पूरक अगला श्लोक देखें- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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