यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 312

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

षष्ठम अध्याय

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।।20।।

जिस अवस्था में योग के अभ्यास से निरुद्ध हुआ चित्त भी उपराम हो जाता है, विलीन हो जाता है, मिट जाता है, उस अवस्था में ‘आत्मना’-अपने आत्मा के द्वारा ‘आत्मानम्’- परमात्मा को देखता हुआ ‘आत्मनि एव’-अपने आत्मा में ही सन्तुष्ट होता है। देखता तो परमात्मा को है लेकिन सन्तुष्ट अपने ही आत्मा से होता है। क्योंकि प्राप्तिकाल में तो परमात्मा का साक्षात्कार होता है, किन्तु दूसरे ही क्षण वह अपने ही आत्मा को उन शाश्वत ईश्वरी विभूतियों से ओतप्रोत पाता है। ब्रह्म अजर, अमर, शाश्वत, अव्यक्त और अमृतस्वरूप है, तो इधर आत्मा भी अजर, अमर, शाश्वत, अव्यक्त और अमृतस्वरूप है। है तो, किन्तु अचिन्त्य भी है। जब तक चित्त और चित्त की लहर है, तब तक वह आपके उपभोग के लिये नहीं है। चित्त का निरोध और निरुद्ध चित्त के विलयकाल में परमात्मा का साक्षात्कार होता है और दर्शन के ठीक दूसरे क्षण उन्हीं ईश्वरीय गुणधर्मों से युक्त अपने ही आत्मा को पाता है, इसलिये वह अपने ही आत्मा में सन्तुष्ट होता है। यही उसका स्वरूप है। यही पराकाष्ठा है। इसी का पूरक अगला श्लोक देखें-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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