यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 31

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

प्रथम अध्याय

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषा लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।42।।

वर्णसंकर कुलघातियों और कुल को नरक में ले जाने के लिये ही होता है। लुप्त हुई पिण्डोदक क्रिया वाले इनके पितर लोग भी गिर जाते हैं। वर्तमान नष्ट हो जाता है, अतीत के पितर गिर जाते हैं और भविष्य वाले भी गिरेंगे। इतना ही नहीं,

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।।43।।

इन वर्णसंकरकारण दोषों से कुल और कुलघातियों के सनातन कुलधर्म और जातिधर्म नष्ट हो जाते हैं। अर्जुन मानता था कि कुलधर्म सनातन है, कुलधर्म ही शाश्वत है। किन्तु श्रीकृष्ण ने इसका खण्डन किया और आगे बताया कि आत्मा ही सनातन-शाश्वत धर्म है। वास्तविक सनातन-धर्म को जानने से पहले मनुष्य धर्म के नाम पर किसी-न-किसी रूढ़ि को जानता है। ठीक इसी प्रकार अर्जुन भी जानता है, जो श्रीकृष्ण के शब्दों में एक रूढ़ि है।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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