विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दषष्ठम अध्यायसुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु। प्राप्ति के पश्चात् महापुरुष समदर्शी और समवर्ती होता है। जैसे पिछले अध्याय (5/18) में उन्होंने बतया कि जो पूर्णज्ञाता या पण्डित है, वह विद्याविनयसम्पन्न ब्राह्मण में, चाण्डाल में, गाय-कुत्ता-हाथी में समान दृष्टिवाला होता है-उसी का पूरक यह श्लोक है। वह हृदय से सहायता करनेवाले सहृदय, मित्र, बैरी, उदासीन, द्वेषी, बन्धुगणों, धर्मात्मा तथा पापियों में भी समान दृष्टिवाला योगयुक्त पुरुष अतिश्रेष्ठ है। वह उनके कार्यों पर दृष्टि नहीं डालता बल्कि उनके भीतर आत्मा के संचार पर ही उसी दृष्टि पड़ती है। इन सबमें वह केवल इतना ही अन्तर देखता है कि कोई कुछ नीचे की सीढ़ी पर खड़ा है, तो कोई निर्मलता के समीप; किन्तु वह क्षमता सबमें है। यहाँ योगयुक्त के लक्षण पुनः दुहराये गये। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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