विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दषष्ठम अध्यायपरमतत्त्व परमात्मा का साक्षात्कार और उसके साथ होनेवाली जानकारी ज्ञान है। एक इन्च भी इष्ट से दूरी है, जानने की इच्छा बनी है तब तक वह अज्ञानी है। वह प्रेरक कैसे सर्वव्याप्त है? कैसे प्रेरणा देता है? कैसे अनेक आत्माओं का एक साथ पथ-प्रदर्शन करता है? कैसे वह भूत, भविष्य और वर्तमान का ज्ञाता है? उस प्रेरक इष्ट की इस कार्य-प्रणाली का ज्ञान ही ‘विज्ञान’ है। जिस दिन से हृदय में इष्ट का अविर्भाव होता है, उसी दिन से वह निर्देश देने लगता है, किन्तु प्रारम्भ में साधक समझ नहीं पाता। पराकाष्ठाकाल में ही योगी उसकी आन्तरिक कार्य-प्रणाली को पूर्णतः समझ पाता है। यही समझ विज्ञान है। योगारूढ़ अथवा युक्तपुरुष का अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त रहता है। इसी प्रकार योगयुक्त पुरुष की स्थिति का निरूपण करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण पुनः कहते हैं- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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