यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 28

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

प्रथम अध्याय

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।37।।


इससे हे माधव! अपने बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं। स्व-बान्धव कैसे? वे तो शत्रु थे न! वस्तुतः शरीर के रिश्ते अज्ञान से उत्पन्न होते हैं। यह मामा हैं, ससुराल है, स्वजन-समुदाय है- यह सब अज्ञान ही तो है। जब शरीर ही नश्वर है, तब इसके रिश्ते ही कहाँ रहेंगेे? मोह है तभी तक सुहृद् हैं, हमारा परिवार है, हमारी दुनिया है। मोह नहीं तो कुछ भी नहीं। इसीलिये वे शत्रु भी अर्जुन को स्वजन दिखायी पड़े। वह कहता है कि अपने कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे? यदि अज्ञान और मोह न रहे तो कुटुम्ब का अस्तित्व न हो। यह अज्ञान ज्ञान का प्रेरक भी है। भर्तुहरि, तुलसी इत्यादि अनेक महानुभावों को वैराग्य की प्रेरणा पत्नी से मिली, तो कोई सौतेली माँ के व्यवहार से खिन्न होकर वैराग्य-पथ पर अग्रसर हुआ दिखायी देता है।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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