यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दपंचम अध्याय
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।,
उसका कोई प्रिय-अप्रिय होता नहीं। इसलिये जिसे लोग प्रिय समझते हैं, उसे पाकर वह हर्षित नहीं होता और जिसे लोग अप्रिय समझते हैं (जैसा धर्मावलम्बी चिन्ह लगाते हैं), उसे पाकर वे उद्वेगवान् नहीं होता है। ऐसा स्थिरबुद्धि, ‘असम्मूढ़’-संशयरहित, ‘ब्रह्मवित्’- ब्रह्म से संयुक्त ब्रह्मवेत्ता ‘ब्रह्मणि स्थितः’-परात्पर ब्रह्म में सदैव स्थित है।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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