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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
पंचम अध्याय
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गति हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।18।।
ज्ञान के द्वारा जिनका पाप शमन हो चुका है, जो ‘अपुनरावर्ती परमगति’ को प्राप्त हैं, ऐसे ज्ञानीजन ‘विद्या-विनययुक्त ब्राह्मण तथा चाण्डाल में, गाय और कुत्ते में तथा हाथी में समान दृष्टि वाले होते हैं। उनकी दृष्टि में विद्याविनययुक्त ब्राह्मण न तो कोई विशेषता रखता है और न चाण्डाल कोई हीनता रखता है। न गाय धर्म है, न कुत्ता अधर्म और न हाथी विशालता ही रखता है। ऐसे पण्डित, ज्ञाताजन समदर्शी और समवर्ती होते हैं। उनकी दृष्टि चमड़ी पर नहीं रहती, बल्कि आत्मा पर पड़ती है। अन्तर केवल इतना है, विद्याविनय सम्पन्न स्वरूप के समीप है और शेष कुछ पीछे हैं। कोई एक मंजिल आगे है, तो कोई पिछले पड़ाव पर। शरीर तो वस्त है। उनकी दृष्टि वस्त्र को महत्व नहीं देती अपितु उनके हृदय में स्थित आत्मा पर पड़ती है, इसलिये वे कोई भेद नहीं रखते।
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