यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 263

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

पंचम अध्याय


ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संग त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।10।।


कमल कीचड़ में होता है। उसका पत्ता पानी के ऊपर तैरता है। लहरें रात-दिन उसके ऊपर से गुजरती हैं; किन्तु आप पत्ते को देखें, सूखा मिलेगा। जल की एक बूँद भी उस पर टिक नहीं पाती। कीचड़ और जल में रहते हुए भी वह उनसे लिप्त नहीं होता। ठीक इसी प्रकार, जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में विलय करके (साक्षात्कार के साथ ही कर्मो। का विलय होता है, इससे पूर्व नहीं), आसक्ति को त्याग करके (अब आगे कोई वस्तु नहीं अतः आसक्ति नहीं रहती, इसलिये आसक्ति त्यागकर) कर्म करता है, वह भी इसी प्रकार लिप्त नहीं होता। फिर वह करता क्यों है? आपलोगों के लिये, समाज के कल्याण-साधन के लिये, पीछेवालों के मार्गदर्शन के लिये। इसी पर बल देते हैं-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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