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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
पंचम अध्याय
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संग त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।10।।
कमल कीचड़ में होता है। उसका पत्ता पानी के ऊपर तैरता है। लहरें रात-दिन उसके ऊपर से गुजरती हैं; किन्तु आप पत्ते को देखें, सूखा मिलेगा। जल की एक बूँद भी उस पर टिक नहीं पाती। कीचड़ और जल में रहते हुए भी वह उनसे लिप्त नहीं होता। ठीक इसी प्रकार, जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में विलय करके (साक्षात्कार के साथ ही कर्मो। का विलय होता है, इससे पूर्व नहीं), आसक्ति को त्याग करके (अब आगे कोई वस्तु नहीं अतः आसक्ति नहीं रहती, इसलिये आसक्ति त्यागकर) कर्म करता है, वह भी इसी प्रकार लिप्त नहीं होता। फिर वह करता क्यों है? आपलोगों के लिये, समाज के कल्याण-साधन के लिये, पीछेवालों के मार्गदर्शन के लिये। इसी पर बल देते हैं-
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