|
यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
पंचम अध्याय
इसी पर बल देकर योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि योग का आचरण किये बिना संन्यास अर्थात् शुभाशुभ कर्मों के अन्त की स्थिति का प्राप्त होना असम्भव है। श्रीकृष्ण के अनुसार ऐसा कोई योग नहीं कि हाथ-पर-हाथ रखकर बैठे-बैठे कहें कि- ‘मैं परमात्मा हूँ, शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, मेरे लिये न तो कर्म है न बन्धन। मैं भला-बुरा कुछ करता दिखायी पड़ता भी हूँ तो इन्द्रियाँ अपने अर्थों में बरत रही हैं।” ऐसा पाखण्ड श्रीकृष्ण के शब्दों में कदापि नहीं है। साक्षात् योगेश्वर भी अपने अनन्य सखा अर्जुन को बिना कर्म के यह स्थिति नहीं दे सके। यदि ऐसा वे कर सकते तो गीता की आवश्यकता ही क्या थी? कर्म तो करना ही पड़ेगा। कर्म करके ही सन्यास की स्थिति को पायाजा सकता है और योगयुक्त पुरुष शीघ्र ही परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। योगयुक्त पुरुष के लक्षण क्या हैं? इस पर कहते हैं-
|
|