यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 249

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


निष्कर्ष-

इस अध्याय के आरम्भ में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा कि इस योग को आरम्भ में मैंने सूर्य के प्रति कहा, सूर्य ने मनु से और मनु ने इक्ष्वाकु के प्रति कहा और उनसे राजर्षियों ने जाना। मैंने अथवा अव्यक्त स्थिति वाले ने कहा। महापुरुष भी अव्यक्त स्वरूपवाला ही है। शरीर तो उसके रहने का मकान मात्र है। ऐसे महापुरुष की वाणी में परमात्मा ही प्रवाहित होता है। ऐसे किसी महापुरुष से योग सूर्य द्वारा संचारित होता है। उस परम प्रकाशरूप का प्रसार सुरा के अन्तराल में होता है इसलिये सूर्य के प्रति कहा।

श्वास में संचारित होकर वे संस्काररूप में आ गये। सुरा में संचित रहने पर, समय आने पर वही मन में संकल्प बनकर आ जाता है। उसकी महत्ता समझने पर मन में उस वाक्य के प्रति इच्छा जागृत होती है और योग कार्यरूप ले लेता है। क्रमशः उत्थान करते-करते यह योग ऋद्धियों-सिऋियों की राजर्षित्व श्रेणी तक पहुँचने पर नष्ट होने की स्थिति में जा पहुँचता है; किन्तु जो प्रिय भक्त है, अनन्य सखा है उसे महापुरुष ही सँभल लेते हैं।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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