यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 248

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।।42।।


इसलिये भरतवंशी अर्जुन! तू योग में स्थित हो और अज्ञान से उत्पन्न हुए हृदय में स्थित अपने इस संशय को ज्ञानरूपी तलवार से काट। युद्ध के लिये खड़ा हो। जब साक्षात्कार में बाधक संशयरूपी शत्रु मन के भीतर है तो बाहर कोई किसी से क्यों लड़ेगा? वस्तुतः जब आप चिन्तन-पथ पर अग्रसर होते हैं, तब संशय से उत्पन्न बाह्य प्रवृत्तियाँ बाधा के रूप में स्वाभाविक हैं। ये शत्रु के रूप में भयंकर आक्रमण करती हैं। संयम के साथ यज्ञ की विधिविशेष का आचरण करते हुए इन विकारों का पार पाना ही युद्ध है, जिसका परिणाम परमशान्ति है। यही अन्तिम विजय है, जिसके पीछे हार नहीं है।



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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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