यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 246

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ।।40।।


अज्ञानी, जो यज्ञ की विधि-विशेष से अनिभिज्ञ है एवं श्रद्धारहित तथा संशययुक्त पुरुष इस परमार्थ पथ से भ्रष्ट हो जाता है। उनमें भी संशययुक्त पुरुष के लिये न तो सुख है, न पुनः मनुष्य-शरीर है और न परमात्मा ही। अतः तत्त्वदर्शी महापुरुष के पास जाकर इस पथ के संशयों का निवारण कर लेना चाहिये अन्यथा वे वस्तु का परिचय कभी नहीं पायेंगे। फिर पाता कौन है?-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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