यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 243

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ।।37।।


अर्जुन! जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, ठीक उसी प्रकार ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है। यह ज्ञान की प्रवेशिका नहीं है जहाँ से यज्ञ में प्रवेश मिलता है वरन् यह ज्ञान अर्थात् साक्षात्कार की पराकाष्ठा का चित्रण है, जिसमें पहले विजातीय कर्म भस्म होते हैं और फिर प्राप्ति के साथ चिन्तन-कर्म भी उसी में विलय हो जाते हैं। जिसे पाना था पा लिया, अब आगे चिन्तन कर किसे ढूँढ़े? ऐसा साक्षात्कार वाला ज्ञानी सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मों का अन्त कर लेगा। वह साक्षात्कार होगा कहा? बाहर होगा अथवा भीतर? इस पर कहते हैं-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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