यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 241

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।।35।।


उस ज्ञान को उनके द्वारा समझकर तू इस प्रकार फिर कभी मोह को प्राप्त नहीं होगा। उनसे दी गयी जानकारी के द्वारा उस पर चलते हुए तू अपनी आत्मा के अन्तर्गत सम्पूर्ण भूतों को देखेगा अर्थात् सभी प्राणियों में इसी आत्मा का प्रसार देखेगा। जब सर्वत्र एक ही आत्मा के प्रसार को देखने की क्षमता आ जायेगी, उसके पश्चात् तू मुझमें प्रवेश करेगा। अतः उस परमात्मा को पाने का साधन ‘तत्त्वस्थित महापुरुष’ के द्वारा है। ज्ञान के सम्बन्ध में, धर्म और शाश्वत सत्य के सम्बन्ध में श्रीकृष्ण के अनुसार किसी तत्त्वदर्शी से ही पूछने का विधान है।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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