विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्थ अध्याय
तद्विद्वि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। इसलिये अर्जुन! तू तत्त्वदर्शी महापुरुष के पास जाकर भली प्रकार प्रणत होकर (दण्डवत्-प्रणाम, करके, अहंकार त्यागकर, शरण होकर) भली प्रकार सेवा करके, निष्कपट भाव से प्रश्न करके तू उस ज्ञान को जान। वे तत्त्व को जानने वाले ज्ञानीजन तेरे लिये उस ज्ञान का उपदेश करेंगे, साधना-पथ पर चलायेंगे। समप्रित भाव से सेवा करने के उपरान्त ही इस ज्ञान को सीखने की क्षमता आती है। तत्त्वदर्शी महापुरुष परमतत्त्व परमात्मा का प्रत्यक्ष दिग्दर्शन करनेवाले हैं। वे यज्ञ की विधि-विशेष के ज्ञाता हैं और वही आपको भी सिखायेंगे। यदि अन्य यज्ञ होता, तो ज्ञानी-तत्त्वदर्शी की क्या आवश्यकता थी? स्वयं भगवान के सामने ही तो अर्जुन खड़ा था, भगवान् उसे तत्त्वदर्शी के पास क्यों भेजते हैं? वस्तुतः श्रीकृष्ण एक योगी थे। उनका आशय है कि आज तो अनुरागी अर्जुन मेरे समक्ष उपस्थित है, भविष्य में अनुरागियों को कहीं भ्रम न हो जाय कि श्रीकृष्ण तो चले गये, अब किसी शरण जायँ? इसलिये उन्होंने स्पष्ट किया कि तत्त्वदर्शी के पास जाओ। वे ज्ञानीजन तुझे उपदेश करेंगे। और-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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