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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
चतुर्थ अध्याय
सारांशतः मन का प्रसार ही जगत् है। चराचर जगत् ही हवन-सामग्री के रूप में है। मन के सर्वथा निरोध होते ही जगत् का निरोध हो जाता है। मन के निरोध के साथ ही यज्ञ का परिणाम निकल आता है। यज्ञ जिसकी सृष्टि करता है, उस ज्ञानामृत का पान करनेवाला पुरुष सनातन ब्रह्म में प्रविष्ट हो जाता है। यह सभी यज्ञ ब्रह्मस्थित महापुरुषों की वाणी द्वारा कहे गये हैं। ऐसा नहीं कि अलग-अलग सम्प्रदायों के साधक अलग-अलग प्रकार के यज्ञ करते हैं, बल्कि ये सभी यज्ञ एक ही साधक की ऊँची-नीची अवस्थाएँ हैं। यह यज्ञ जिससे होने लगे, उस क्रिया का नाम कर्म है। सम्पूर्ण गीता में एक भी श्लोक ऐसा नहीं है, जो सांसारिक कार्य-व्यापारों का समर्थन करता हो।
प्रायः यज्ञ का नाम आने पर लोग बाहर एक यज्ञ-वेदी बनाकर तिल, जौ लेकर ‘स्वाहा’ बोलते हुए हवन प्रारम्भ कर देते हैं। यह एक धोखा है। द्रव्ययज्ञ दूसरा है, जिसे श्रीकृष्ण ने कई बार कहा। पशुबलि, वस्तु-दाह इत्यादि से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है।
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