विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्थ अध्याय
अर्जुन! तू निर्धारित कर्म को कर। यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। यज्ञ क्या है? श्वास-प्रश्वास का हवन, इन्द्रियों का संयम, यज्ञस्वरूप महापुरुष का ध्यान, प्राणायाम प्राणों का निरोध। यही मन की विजितावस्था है। मन का ही प्रसार जगत् है। श्रीकृष्ण के ही शब्दों में, ‘इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्य स्थितं मनः।’ (5/19)-उन पुरुषों द्वारा चराचर जगत् यहीं जीत लिया गया, जिनका मन समत्व में स्थित है। भला मन के समत्व और जगत् के जीतने से क्या सम्बन्ध है? यदि जगत् को जी ही लिया तो रुका कहाँ पर? तब कहते हैं-वह ब्रह्म निर्दोष और सम है, इधर मन भी निर्दोष और समत्व की स्थितिवाला हो गया, अतः वह ब्रह्म में स्थित हो जाता है।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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