यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 237

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


प्रायः लोग कहते हैं कि संसार में कुछ भी किया जाय, हो गया कर्म। कामना से रहित होकर कुछ भी करते जाओ, हो गया निष्काम कर्मयोग। कोई कहता है कि अधिक लाभ के लिये विदेशी वस्त्र बेचते हैं तो आप सकामी हैं। देश-सेवा के लिये स्वदेशी बेचें तो हो गया निष्काम कर्मयोग। निष्ठापूर्वक नौकरी करें, हानि-लाभ की चिन्ता से मुक्त होकर व्यापार करें, हो गया निष्काम कर्मयोग। जय-पराजय की भावन से मुक्त हो युद्ध करें, चुनाव लड़े, हो गये निष्कर्मी। मरोगे तो मुक्ति हो जायेगी। वस्तुतः ऐसा कुछ भी नहीं है। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्पष्ट शब्दों में बताया कि इस निष्काम र्क में निर्धारित क्रिया एक ही है- ‘व्यवसायात्किा बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।’

अर्जुन! तू निर्धारित कर्म को कर। यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। यज्ञ क्या है? श्वास-प्रश्वास का हवन, इन्द्रियों का संयम, यज्ञस्वरूप महापुरुष का ध्यान, प्राणायाम प्राणों का निरोध। यही मन की विजितावस्था है। मन का ही प्रसार जगत् है। श्रीकृष्ण के ही शब्दों में, ‘इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्य स्थितं मनः।’ (5/19)-उन पुरुषों द्वारा चराचर जगत् यहीं जीत लिया गया, जिनका मन समत्व में स्थित है। भला मन के समत्व और जगत् के जीतने से क्या सम्बन्ध है? यदि जगत् को जी ही लिया तो रुका कहाँ पर? तब कहते हैं-वह ब्रह्म निर्दोष और सम है, इधर मन भी निर्दोष और समत्व की स्थितिवाला हो गया, अतः वह ब्रह्म में स्थित हो जाता है।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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