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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
चतुर्थ अध्याय
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुहति ज्ञानदीपिते।।27।।
अभी तक योगेश्वर ने जिस यज्ञ की चर्चा की, उसमें क्रमशः दैवी सम्पद् को अर्जित किया जाता है, इन्द्रियों की सम्पूर्ण चेष्टाओं का संयम किया जाता है, बलात विषयोत्तेजक शब्दादिकों के टकराने पर भी उनका आशय बदलकर उनसे बचा जाता है। इससे उन्नत अवस्था होने पर दूसरे योगीजन सम्पूर्ण इन्द्रियों की चेष्टाओं तथा प्राण के व्यापार को साक्षात्कारसहित ज्ञान से प्रकाशित परमात्मस्थितिरूपी योगाग्नि में हवन करते हैं। जब संयम की पकड़ आत्मा के साथ तद्रूप हो जाती है, प्राण और इन्द्रियों का व्यापार भी शान्त हो जाता है, उस समय विषयों को उद्दीप्त करनेवाली और इष्ट में प्रवृत्ति दिलानेवाली दोनों धाराएँ आत्मसात् हो जाती हैं। परमात्मा में स्थिति मिल जाती है। यज्ञ का परिणाम निकल आता है। यह है यज्ञ की पराकाष्ठा। जिस परमात्मा को पाना था, उसी में स्थिति आ गयी तो शेष क्या रहा? पुनः योगेश्वर श्रीकृष्ण यज्ञ को भली प्रकार समझाते हैं-
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