यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 226

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुहति ज्ञानदीपिते।।27।।


अभी तक योगेश्वर ने जिस यज्ञ की चर्चा की, उसमें क्रमशः दैवी सम्पद् को अर्जित किया जाता है, इन्द्रियों की सम्पूर्ण चेष्टाओं का संयम किया जाता है, बलात विषयोत्तेजक शब्दादिकों के टकराने पर भी उनका आशय बदलकर उनसे बचा जाता है। इससे उन्नत अवस्था होने पर दूसरे योगीजन सम्पूर्ण इन्द्रियों की चेष्टाओं तथा प्राण के व्यापार को साक्षात्कारसहित ज्ञान से प्रकाशित परमात्मस्थितिरूपी योगाग्नि में हवन करते हैं। जब संयम की पकड़ आत्मा के साथ तद्रूप हो जाती है, प्राण और इन्द्रियों का व्यापार भी शान्त हो जाता है, उस समय विषयों को उद्दीप्त करनेवाली और इष्ट में प्रवृत्ति दिलानेवाली दोनों धाराएँ आत्मसात् हो जाती हैं। परमात्मा में स्थिति मिल जाती है। यज्ञ का परिणाम निकल आता है। यह है यज्ञ की पराकाष्ठा। जिस परमात्मा को पाना था, उसी में स्थिति आ गयी तो शेष क्या रहा? पुनः योगेश्वर श्रीकृष्ण यज्ञ को भली प्रकार समझाते हैं-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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