यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 214

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


सारांशतः आराधना ही कर्म है, उस कर्म को करें और करते हुए अकर्म देखें कि मैं तो यन्त्रमात्र हूँ, कराने वाला इष्ट है और मैं गुणों से उत्पनन अवस्था के अनुसार ही चेष्टा कर पाता हूँ। जब अकर्म की यह क्षमता आ जाय और धारावाहिक कर्म होता रहे, तभी परमकल्याण की स्थिति दिलानेवाला कर्म हो पाता है। ‘पूज्य महाराज जी’ कहा करते थे कि, “जब तक इष्ट रथी न हो जाय, रोकथाम न करने लगे, तब तक सही मात्रा में साधना का आरम्भ ही नहीं होता।” इसके पूर्व जो कुछ भी किया जाता है, कर्म में प्रवेश के प्रयास से अधिक कुछ भी नहीं है। हल का सारा भार बैलों के कन्धों पर ही रहता है, फिर भी खेत की जुताई हलवाहे की देन है।

ठीक इसी प्रकार साधन का सारा भार साधक के ऊपर ही रहता है; किन्तु वास्तविक साधक तो इष्ट है जो उसके पीछे लगा हुआ है, जो उसका मार्गदर्शन करता है। जब तक इष्ट निर्णय न दें, तब तक आप समझ ही नहीं सकेंगे कि हमसे हुआ क्या? हम प्रकृति में भटक रहे हें या परमात्मा में? इस प्रकार इष्ट के निर्देशन में जो साधक इस आत्मिक पथ पर अग्रसर होता है, अपने को अकर्ता समझकर धारावाहिक कर्म करता है वही बुद्धिमान् है, उसकी जानकारी यथार्थ है, वही योगी है।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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